Modern history MCQ in hindi-4 pdf / जनजातीय , किसान , मजदूर आन्दोलन

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संन्यासी विद्रोह (1763-1800 ई.)

➽ प्लासी में अंग्रेजों की विजय के पश्चात् उपनिवेशवादी शोषण नीति से बंगाल में ब्रिटिश प्रभुत्व की स्थापना हुई। 1760 ई. में उनके विरुद्ध संन्यासी विद्रोह आरंभ हो गया।

➽ संन्यासियों और फकीरों के नेतृत्व में प्रारम्भ हुआ विद्रोह पूर्वी भारत के अनेक क्षेत्रों में फैला।

➽ यह विद्रोह एक धार्मिक सम्प्रदाय के अनुयायियों जिन्हें संन्यासी कहा जाता था, के द्वारा प्रारंभ किया गया था। सरकार द्वारा तीर्थ यात्रा पर प्रतिबंध लगाने के विरोध में संन्यासियों ने विद्रोह कर दिया। विद्रोह के कारण इस संघर्ष को सन्यासी विद्रोह कहा जाता है।

➽ ये शंकराचार्य के अनुयायी व गिरि सम्प्रदाय के थे। इनके आक्रमण की पद्धति गुरिल्ला युद्ध पर आधारित थी।

इस विद्रोह का नाम संन्यासी विद्रोह, बंगाल के गवर्नर वारेन हेस्टिंग्स ने दिया था। विद्रोही ईस्ट इंडिया कम्पनी के मालगोदामों को लूटते थे। द्विजनारायण इस विद्रोह के प्रमुख नेता थे।

बंगाल के उपन्यासकार बंकिम चन्द्र चटर्जी ने अपने उपन्यास आनंद मठ का कथानक संन्यासी विद्रोह से लिया है।

➽ आदिवासियों के भी अनेक विद्रोह हुए। इनमें से कुछ शक्तिशाली विद्रोह थे- मध्य प्रदेश, राजस्थान और महाराष्ट्र में भीलों का विद्रोह,

  • बंगाल, बिहार और उड़ीसा में कोलों का विद्रोह,
  • बंगाल एवं उड़ीसा में गोंडों व खोडों का विद्रोह,
  • महाराष्ट्र में कोलियोंका विद्रोह
  • बंगाल एवं बिहार में संथालों का विद्रोह।

चुआर विद्रोह (1766-72 ई.)

  • 1766 ई. में बंगाल एवं बिहार के 5 जिलों में चुआर विद्रोह का आरम्भ हुआ।
  • इस विद्रोह का कारण अकाल एवं बढ़ा हुआ भूमिकर था।

फकीर विद्रोह (1776-77 ई.)

बंगाल में 1776-77 ई. में फकीर विद्रोह प्रारम्भ हुआ। यह घुमक्कड़ मुसलमान धार्मिक फकीरों का गुट था, जिसके नेता मजनू शाह ने 1776-77 ई. में अंग्रेजी शासन के विरुद्ध विद्रोह करते हुए जमींदारों और किसानों से धन की वसूली की।

➽ मजनूशाह की मृत्यु के बाद चिराग अली ने आंदोलन को नेतृत्व प्रदान किया। भवानी पाठक और देवी चौधरानी जैसे हिन्दू नेताओं ने इस आंदोलन की सहायता की।

( पागलपंथी (1840 1850 ई.)

➽ पागलपंथी अर्द्ध धार्मिक सम्प्रदाय था जो भारत के उत्तर-पूर्वी भाग में सक्रिय था। ये सत्य, समानता और भाई-चारे के सिद्धान्तों के समर्थक थे।

➽ वर्ष 1813 में पागलपंथी सम्प्रदाय के नेता करम शाह व उसके बाद टीपू ने जमींदारों के विरुद्ध काश्तकारों के समर्थन में विद्रोह कर जमींदारों के गढ़ों पर आक्रमण कर दिया।

➽ विद्रोह के समय टीपू इतना शक्तिशाली हो गया कि, उसने एक न्यायाधीश, मजिस्ट्रेट और जिलाधिकारी की नियुक्ति की। वर्ष 1833 में विद्रोह को कुचल दिया गया।

कूका आन्दोलन (1840-1872 ई.)

कूका आन्दोलन की शुरुआत 1840 में सेन साहब अर्थात् भगत जवाहरमल द्वारा की गई थी। सेन साहब के अनुयायी बालक सिंह ने अपने अनुयायियों का एक दल गठित किया तथा उत्तर-पश्चिम सीमा प्रान्त के हजारा में अपना मुख्यालय बनाया।

➽ कूका आन्दोलन का प्रमुख उद्देश्य, सामाजिक सुधारों में जाति और अन्तर्जातीय विवाहों पर लगे प्रतिबंधों को समाप्त करना, मांस और नशीली वस्तुओं का परित्याग करना शामिल था।

➽ 1860 ई. में बालक सिंह की मृत्यु के पश्चात् उनके शिष्य राम सिंह कूका के नेतृत्व में विद्रोह ने जोर पकड़ा। रामसिंह के अधीन कूकाओं का पहला विद्रोह 1869 ई. में फिरोजपुर में हुआ। यह एक राजनीतिक विद्रोह था एवं अंग्रेजी राज को उखाड़ फेंकना इसका मूल लक्ष्य था। इसमें मद्य निषेध, गोमांस, निषेध, वृक्ष पूजा, पुरुष और महिलाओं में समानता पर बल दिया गया था।

भील विद्रोह (1818-48 ई.)

➽ भीलों ने महाराष्ट्र एवं राजस्थान में विद्रोह किया। 1822 ई में हिरिया ने भीलों का नेतृत्व किया। 1825 ई. में सेवाराम के नेतृत्व में भीलों ने पुनः विद्रोह किया। 1857 ई. में भागोजी और काजल सिंह नामक भील नेताओं ने अंग्रेजों से लोहा लिया।

➽ इस आदिवासी समाज ने साहूकारी व्यवस्था के शोषण एवं अन्य हो रहे बदलावों से प्रेरित होकर 1821 ई. में उपद्रव करना प्रारम्भ किया। जिसका नेतृत्व दौलत सिंह कर रहा था।

➽ 19वीं सदी के अन्तिम दो दशकों में भील विद्रोह का नेतृत्व श्री गोविन्द ने किया। इसने 1883 ई. में आदिवासियों के सेवार्थ सम्प सभा की स्थापना की, जिसके माध्यम से भीलों को संगठित किया गया।

वहाबी आंदोलन (1820-70 ई.)

➽ इस आंदोलन के प्रवर्तक अब्दुल वहाब थे।

भारत में इसके प्रवर्तक सैय्यद अहमद बरेलवी थे। जिन्होंने एकेश्वरवाद व जिहाद (धर्मयुद्ध) पर बल दिया। उन्होंने हिजरत (दुश्मनों को देश से बाहर करने) के महत्व पर बल दिया। वहाबियों ने प्रभावशाली विद्रोह किया।

➽ ये वहाबी सैय्यद अहमद द्वारा स्थापित मुसलमानों के एक संप्रदाय के अनुयायी थे। वहाबियों ने अंग्रेजों के शासन को उखाड़ फेंकने व धर्मयुद्ध में शामिल होने के लिए जनता का आह्वान किया। वहाबियों की ब्रिटिश-विरोधी गतिविधियाँ 1830-1857 ई. के विद्रोह के बाद तक जारी रहीं।

➽ इन विद्रोहों के दमन में अंग्रेजों को लंबा समय लगा, परन्तु ये भारत में अंग्रेजों के शासन के लिए कोई बड़ा खतरा साबित नहीं हुआ।

मुण्डा विद्रोह (उलगुलान विद्रोह) (1893-1900 ई.)

➽ आदिवासी विद्रोहों में सबसे प्रसिद्ध विद्रोह बिरसा मुंडा के नेतृत्व में आरम्भ हुआ।

➽ बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवम्बर, 1875 को झारखंड की राजधानी राँची के उलीहातू गाँव में हुआ था। इन्हें मिशनरियों से बहुत कम शिक्षा प्राप्त हुयी थी। वह जर्मन मिशनरियों के प्रभाव में आकर ईसाई बन गए थे, परन्तु पुनः इन्होंने अपने पूर्वजों के धर्म को अपना लिया।

मुंडा ने एकेश्वरवाद की स्थापना पर बल दिया। एक मान्यता के अनुसार, 1895 ई. में बिरसा को परमेश्वर के दर्शन हुए और वह पैगम्बर होने का दावा करने लगे। उनका कहना था कि उनके पास निरोग करने की चमत्कारी शक्ति है।

➽ मुंडा जनजाति में प्रचलित सामूहिक खेती (खुटकट्टी व्यवस्था) की परम्परा पर जमींदारों, ठेकेदारों, व्यापारियों एवं महाजनों ने अंग्रेजों के संरक्षण में आक्रमण करना आरंभ कर दिया जिसके विरोध में 1899 ई. में मुण्डाओं ने विद्रोह कर दिया।

➽ इस विद्रोह में मुंडा स्त्रियों ने भी भाग लिया। 1900 ई. में विद्रोहियों ने पुलिस को अपना निशाना बनाया परंतु, जनवरी, 1900 ई. में सैलरकेब पहाड़ी पर ब्रिटिश सेना द्वारा पराजित हुए। कुछ दिन पश्चात् बिरसा पकड़ा गया तथा उसे कैद कर लिया गया जिसके पश्चात् उसकी मृत्यु हो गई और विद्रोह शांत हो गया।

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