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जहाँगीर (Jahangir) notes in hindi / जहाँगीर का सम्पूर्ण इतिहास

जहाँगीर (Jahangir) notes in hindi दोस्तों स्वागत है आपका हमारे इतिहास के नोट्स सीरिज मैं आज हम आपको मुग़ल वंश के महत्वपूर्ण शासक जहाँगीर (Jahangir) के बारे मैं जानकारी देंगे और बाबर के द्वारा किये गए प्रमुख युद्ध के बारे मैं विस्तार से चर्चा करेंगे जो आपके आने वाले किस भी एग्जाम के लिए महत्वपूर्ण साबित होंगे

जहाँगीर (Jahangir) notes in hindi /

जन्म – 30 अगस्त, 1569 ई० में।
मूल नाम– सलीम
पूरा नाम – नुरूद्दीन मोहम्मद जहाँगीर
पिता– अकबर
माता – मरियम उज्जमानी (हरखाबाई उर्फ जोधाबाई) ।
राज्याभिषेक – 24 अक्टूबर, 1605 ई० में

प्रारम्भिक जीवन –

विभिन्न पत्नियों से अकबर के कुल पाँच पुत्र उत्पन्न जिसमें हसन व हुसैन की मृत्यु बाल्यावस्था में ही हो गयी। मुराद व दानियाल की मृत्यु भी अकबर के जीवन काल में हो गयी। एक मात्र जीवित पुत्र सलीम शेष बचा जो जहाँगीर के नाम से उसका उत्तराधिकारी बना ।

नुरूद्दीन मोहम्मद जहाँगीर का जन्म 30 अगस्त, 1569 ई० को मरियम उज्जमानी (आमेर के राजा भारमल की पुत्री हरखाबाई उर्फ जोधाबाई) के गर्भ से हुआ था । इसके जन्म से पूर्व अकबर ने अनेक प्रार्थानाओं व सूफियों की दरगाहों की यात्रा की जिसके फलस्वरूप फतेहपुर सीकरी के प्रसिद्ध सूफी सन्त शेख सलीम चिश्ती आशिर्वाद से उसे पुत्र – रत्न की प्राप्ति हुई। इनके प्राप्त श्रद्धा प्रकट करते हुए बादशाह अकबर ने इन्हीं के नाम पर शाहजादे का नाम सलीम रखा। अकबर प्यार से उसे शेखू बाबा कहा करता था

प्रारम्भिक शिक्षा-

अकबर स्वयं शिक्षित नहीं था किन्तु उसने अपने पुत्र की शिक्षा की ओर विशेष ध्यान दिया। शाहजादा सलीम का प्रथम शिक्षक बैरम खाँ के पुत्र अब्दुर्रहीम खानेखाना थें जो कवि एवं विद्वान थे। उसके संरक्षण में सलीम ने तुर्की भाषा का अध्ययन किया। तत्पश्चात् उसने फारसी, हिन्दी, इतिहास व भूगोल का अध्ययन किया। पुस्तकीय ज्ञान के अतिरिक्त शाहजादा सलीम को सैनिक शिक्षा का भी प्रबंध किया गया जिसमें शीघ्र ही उसने निपुणता प्राप्त कर ली । वह श्रेष्ठ -निशानेबाज था। 1581 ई० में उसे सेना का संचालन करने एवं न्याय तथा राजकीय शिष्टाचार विभागों का कार्य देखने की जिम्मेदारी सौंपी गयी। इसी वर्ष उसने काबुल के युद्ध में एक सैन्य टुकड़ी का स्वतंत्र रूप से नेतृत्व किया। इस समय उसकी आयु मात्र 12 वर्ष थी

विवाह-

तत्कालीन मुगल बादशाहो के अनुरूप शाहजादा सलीम ने भी अनेक विवाह किये। उसका पहला विवाह अम्बर (जयपुर) के राजा भगवान दास की पुत्री व राजा मानसिंह की बहन मानबाई से 1585 ई० में हुआ। इसी से शहजादा खुसरो – का जन्म हुआ । मानबाई को सलीम ने शाहबेगम का पद प्रदान किया था । किन्तु बाद मैं उसने अपने पुत्र खुसरो के विद्रोही प्रवृति से दुखी होकर अत्यधिक अफीम खाकर आत्महत्या कर दी शाहवेगम को इलाहाबाद में खुलदाबाद के बाग में दफनाया गया। सलीम का दूसरा विवाह 1586 ई० में राजा उदयसिंह की पुत्री जगतगोसाई (जोधाबाई, मलिका-ए-जहां) से हुआ। इसी से शाहजाहा खुर्रम (भविष्य में शाहजहां) का जन्म हुआ जगत गोसाई सलीम की प्रिय पत्नियों में से एक थी। सलीम के तीसरे पुत्र परवेज का जन्म उसकी एक पत्नि साहिब-ए-जमाल से व चौथे पुत्र शहरयार का जन्म एक रखैल से हुआ था। बादशाह बनने के बाद जहाँगीर ने 1611 ई० में अली कुलीबेग की विधवा मेहरून्निसा से विवाह किया तथा उसे नूरमहल नूरजहाँ की उपाधि प्रदान की।

सलीम के विरुद्ध पडयंत्र-

अकबर के अन्तिम दिनों में सलीम शीघ्र गद्दी प्राप्त करने के उद्देश्य से विद्रोही हो गया था। अकबर उसके इस व्यवहार से बहुत दुःखी रहता था इसलिए वह सलीम के स्थान पर उसके पुत्र खुसरो को अपना उत्तराधिकारी बनाने पर विचार करने लगा। अकबर के इस विचार से शाहजादा सलीम के विद्रोही गुट को बल मिला जिसमें आमेर के राजा मानसिंह व मिर्जा अजीज कोका प्रमुख थे। खुसरो राजा मानसिंह का भाजा व मिर्जा अजीज कोका का दामाद था वह संयमी व सुसंस्कृत था उसके व्यक्तित्व से दरबार में उसके प्रशंसकों की संख्या बढ़ती गयी। अतः वह शासक बनने का स्वप्न देखने लगा। 1605 ई० में जब अकबर गंभीर रूप से बीमार पड़ा तब राजा मानसिंह व अजीज कोका ने अकबर के मृत्यु के पश्चात् खुसरो को शासक बनाने का षड्यंत्र रचने लगे किन्तु सैय्यद खां चगताई नामक अमीर के हस्तक्षेप से यह षड्यंत्र असफल हो गया। इस समय अकबर अपनी मृत्यु शैय्या पर था। सलीम उसकी सेवा में उपस्थित हुआ। अकबर ने उसके सभी अपराधों को क्षमा कर उसे अपना उत्तराधिकारी घोषित किया।

राज्याभिषेक

अकबर के मृत्युं के बाद 29 अक्टूबर, 1605 ई० को आगरा के दुर्ग में शाहजहा सलीम का राज्याभिषेक हुआ तथा उसने नुरुद्दीन मुहम्मद जहाँगीर बादशाह गाजी अर्थात् ‘विश्व विजयी’ की उपाधि धारण की। उसके सिंहासनारोहण में कोई अभिषेक नहीं, कोई शपथ नहीं, कोई धर्मोपदेश नहीं को सम्मिलित किया गया। इसके अतिरिक्त जहाँगीर ने स्वयं के हाथों से मुकुट को अपने सिर पर रख, खुतबा पढ़ा तथा सिक्के जारी किया।

जहाँगीर (Jahangir) notes in hindi

गद्दी पर बैठने के उपरान्त बादशाह जहाँगीर ने अपने पिता की भांति उदार एवं सहिष्णु नीति का अनुसरण किया। उसने कैदियों को जेल से मुक्त कर दिया। पुराने विश्वासपात्र पदाधिकारियों व मंत्रियों को उनके पदों पर रहने दिया। उसने मानसिंह व मिर्जा अजीज कोका को क्षमा कर दिया। मान सिंह के पुत्र महासिंह को दो हजार के मनसब शाही दरबार में सम्मिलित कर लिया गया। अबुल फजल के पुत्र अब्दुर्रहमान को दो हजार का मनसब तथा शाही दरबार में विशिष्ट स्थान प्रदान किया गया। मिर्जा ग्यासबेग को एतमादउद्दौला की उपाधि तथा अबुल फजल के हत्यारे वीरसिंह बुंदेला को तीन हजार का मनसब प्रदान किया गया। इसके अतिरिक्त अब्दुस समद खाँ के पुत्र शरीफ खाँ पाँच हजार के मनसब के साथ प्रधानमंत्री का पद तथा बड़ी मोहर का धारक बनाया गया। शेख फरीद बुखारी जो अकबर के अन्तिम दिनों में मीर बख्शी के पद था, को पाँच हजार के उच्च मनसब के साथ उसी पद पर रहने दिया गया। इस प्रकार जहाँगीर ने अपने निकट मित्रों व वफादार साथियों को प्रमुख पद प्रदान कर शाही मंत्रालय का पुनर्गठन किया। जहाँगीर एक न्यायप्रिय शासक था। अपनी न्यायप्रियता प्रदर्शित करने के लिए महल के बाहर उसने एक विशुद्ध सोने की बनी एक जंजीर की व्यवस्था की जिसमें एक घण्टी बंधी थी। वाकयात-ए-जहाँगीरी नामक ग्रन्थ से ज्ञात होता है कि जहाँगीर ने आगरा किला से यमुना नदी के किनारे तक 30 गज लम्बा एक सोने की जंजीर जिसमें 60 घंटियाँ लटकी हुई थी। टंगवाई जिसे न्याय की जंजीर कहा जाता है। इसका उद्देश्य फरियादी को सम्राट तक सीधा फरियाद का अवसर प्रदान करना था। तत्पश्चात् जहाँगीर अपने 12 अध्यादेश जारी किया

जहाँगीर (Jahangir) notes in hindi

जहाँगीर अपनी आत्मकथा तुजुक ए-जहाँगीर में लिखता है कि “मैने साम्राज्य में 12 अध्यादेश जारी किए तथा यह आदेश दिया कि ये सभी जगह लागू किए जाए। उसके 12 घोषणाओं को आइन-ए-जहाँगीरी कहा जाता है जो निम्नलिखित है-

1. करों (जकात, तमगा, मीरबहरी आदि) का निषेध ।
2. सड़कों पर चोरी, डकैती के सम्बन्ध में नियम
3. मृत व्यक्तियों की सम्पत्तियों पर उसके उत्तराधिकारी का अधिकार होगा उत्तराधिकारी न होने की स्थिति में वह सम्पत्ति राजकर्मचारियों द्वारा सार्वजनिक भवनों, कुओं, य तालाबों के निर्माण में व्यय की जाएगी।
4. मादक वस्तुओं के उत्पादन व बिक्री पर रोक ।
5. घरों की कुओं तथा अंग-विच्छेदन का निषेध ।
6. सम्पत्ति पर बलपूर्वक अधिकार करने की मनाही
7. चिकित्सालयों का उचित प्रबंध
8 . निश्चित दिनों जैसे बृहस्पतिवार को जहाँगीर के सिंहासनारोहण के दिन व रविवार को अकबर के जन्म दिन पर पशुवद्ध निषिद्ध ।
9. रविवार के प्रति सम्मान ।
10 . जागीरों तथा मनसबों का सामान्य प्रमाणीकरण ।
11. मदद-ए-माश (आइमा भूमि) का । प्रमाणीकरण
12 . बंदियों को क्षमादान |

जहाँगीर (Jahangir) notes in hindi

शाहजादा खुसरो जहाँगीर की राजपूत पत्नी मानवाई से उत्पन्न हुआ था। वह जहाँगीर का ज्येष्ठ पुत्र था। यह व्यवहार कुशल, मधुर भाषी व लोकप्रिय शाहजादा था। शाहजादा सलीम (जहांगीर) के प्रवृत्ति से दुःखी होकर अकबर ने इसे अपना उत्तराधिकारी घोषित करने का विचार किया था। राजा मानसिंह व मिज अजीज कोका आदि ने एक षड्यंत्र कर शाहजादा सलीम के स्थान पर खुसरों को गद्दी पर बैठाना चाहते थे वे किन्तु सफल नहीं हुए। गद्दी प्राप्त करने के बाद जहाँगीर खुसरो की तरफ से पूरी तरह आश्वस्त नहीं था अतः उसे आगरे के किले में रखा तथा उस पर कड़ी नजर रखने का आदेश दिया। शाहजादां खुसरो बादशाह जहाँगीर के इस व्यवहार से क्षुब्ध रहता था। 6 अप्रैल, 1606 ई० को वह अकबर के मकबरे की यात्रा के बहाने आगरा से भाग निकला तथा विद्रोह कर दिया। इस विद्रोह में उसके दो सहयोगी हुसैनवेग बदख्शानी व अब्दुर्रहीम प्रमुख थे खुसरो जब मथुरा पहुँचा तो हुसैन बेग बदख्शानी अपने तीन हजार अश्वारोहिरयों के साथ उससे आ मिला। मथुरा से वह लाहौर के लिए प्रस्थान किया। मार्ग में अब्दुर्रहीम उससे आ मिला जिसे खुसरो ने अपना वजीर बनाया। वहाँ से वह तरनतारन पहुंचा जहाँ सिक्खों के पांचवे गुरू, अर्जुनदेव ने खुसरो को आशिर्वाद व आर्थिक सहायता दिया। लाहौर पहुँचकर उसने नगर को घेर लिया। उस समय लाहौर का मुगल सुबेदार दिलावर खाँ था जिसने नगर की रक्षा की। खुसरो के विद्रोह की सूचना पाकर जहाँगीर शाही सेना के साथ लाहौर के लिए प्रस्थान किया। जहाँगीर के आगमन की सूचना पर कर खुसरो पश्चिमोत्तर की ओर चला गया। जहाँगीर को यह भय था कि कहीं खुसरो उजबेगों व ईरानियों से मिलकर संकट न उत्पन्न कर दे। अतः उसने खुसरो को समझाने का प्रयास किया। अन्त में भैरोवाल नामक स्थान पर पिता- -पुत्र के मध्य युद्ध हुआ जिसमें खुसरो पराजित होकर काबुल की ओर भागने लगा। किन्तु चिनाब नदी को पार करते समय अपने साथियों के साथ पकड़ा गया। एक कैदी के रूप में उसे बादशाह के समक्ष प्रस्तुत किया गया। जहाँगीर ने खुसरों को बंदीगृह में डालने का आदेश दिया तथा उसके साथियों को मृत्युदण्ड दिया गया। सिखों के पांचवे गुरु गुरु अर्जुन देव ने शाहजादा खुसरो की सहायता की थी। एक विद्रोही की सहायता के जुर्म में जहाँगीर ने उन पर 2 लाख रुपए का जुर्माना लगाया। किन्तु जब गुरु अर्जुन के इसे देने में अपनी असमर्थता बतायी तो उन्हें मृत्युदण्ड दे दिया गया। सिक्ख कथानकों के अनुसार चन्दूशाह के कहने पर खुसरो को मृत्यु दण्ड दिया गया।

जहाँगीर (Jahangir) notes in hindi

खुसरो को आगरा के किले में कैद रखा गया। धीरे -धीरे उसने कुछ सुरक्षा कर्मियों को अपनी ओर मिला लिया तथा जहाँगीर की हत्या का षड्यंत्र रचने लगा । षड्यंत्रकारियों में एक हिजड़ा इतवार खान, नुरुद्दीन, मोहम्मद शरीफ, जाफर बेग , फतेहउल्ला आदि सम्मिलित थे। पड्यंत्र के अनुसार सम्राट के शिकार के अभियानों में से उस अभियान के दौरान मारने की योजना बनी जब यह काल से लाहौर लौट रहा होगा। किन्तु बादशाह को इस षड्यंत्र का पता चल गया। उसने महावत खाँ को आदेश दिया कि यह खुसरों को अन्धा कर दे। शेष विद्रोहियों की मृत्युदण्ड दिया गया। किन्तु बाद में पुत्र के प्रति पिता का प्रेम पुनः जीवित हो उठा जहाँगीर ने खुसरो की आंख ठीक करने के लिए फारस के चिकित्सकों में हकीम सद, नामक एक चिकित्सक को नियुक्त किया। 6 माह के पश्चात् हकीम ने राजकुमार खुसरो की एक आंख की मूल दृष्टि पुनः वापस करने में सफल हुआ। जहाँगीर ने हकीम सद की सेवा से प्रसन्न होकर उसे मासिन उज-जमान की उपाधि प्रदान की। इसके पश्चात् खुसरो प्रायः बन्दी के रूप में ही रहा। खुसरो अपने भाइयों में ज्येष्ठ था। इस कारण लोग उसे सिंहासन का उत्तराधिकारी समझने लगे। खुर्रम उसे अपना प्रतिद्वंद्वी समझता था। इसलिए वह दक्षिण अभियान के अवसर पर बादशाह से उसे अपने साथ ले जाने की प्रार्थना की। बादशाह जहाँगीर ने शहजादा खुर्रम के इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। खुसरों को खुर्रम के साथ दक्षिण भेजा गया । खुर्रम अपनी चाल में सफल हुआ। उसने 1622 ई० में बुरहानपुर में खुसरो की हत्या करवा दी तथा उसके शव को वहीं दफना दिया। इस सूचना से जहाँगीर बहुत दुःखी हुआ। उसने खुसरो के शव को आगरा लाने का आदेश दिया, जहाँगीर के आदेश के बाद खुसरो के शव को इलाहाबाद भेज दिया गया। उसके शव को इलाहाबाद के खुलदाबाग में उसकी माता शाहबेगम के कब्र के पास दफनाया गया तथा उसके नाम पर इस बाग का नाम खुसरोबाग रखा गया। खुसरो मुगल अमीरों के साथ-साथ जनता में भी अत्यधिक लोकप्रिय था, उसे लम्बे समय तक हुतात्मा सन्त के रूप में याद किया जाता रहेगा।

जहाँगीर (Jahangir) notes in hindi

नूरजहाँ

प्रारम्भिक जीवन- नूरजहाँ का मूल नाम मेहरून्निसा था। नूरमहल (प्रसाद) ज्योति) व नूरजहाँ (जगज्योति) की पदवी उसे जहाँगीर ने प्रदान किया था। उसके पिता का नाम गियास बेग तथा माता का नाम असमत बेगम था जो तेहरान के निवासी थे। प्रारम्भ में गियास बेग शाह तहमास्प सफावी के अधीन वजीर के रूप में नियुक्त था 1577 ई० में शाह के मृत्यु के पश्चात् गियास बेग की आर्थिक स्थिति दयनीय हो गयी। अतः वह जोविका की तलाश में भारत आया। पहले वह कंबार पहुँचा जहाँ एक धनी व्यापारी मलिक मसूद के काफिले में शामिल हो गया। कन्धार में मेहरुन्निसा का जन्म हुआ। कन्धार से मलिक मसूद के साथ वह फतेहपुर सीकरी आया। मसूद की सहायता से वह बादशाह अकबर की सेवा में उपस्थित हुआ जहाँ उसे एक साधारण पद पर नियुक्त किया गया। किन्तु अपनी प्रतिमा एवं योग्यता के बल पर वह एक के बाद एक उच्च पदों को प्राप्त किया। अब यह मिर्जा के नाम से प्रसिद्ध हो गया। 1595 ई० में उसे काबुल का दीवान नियुक्त किया गया तत्पश्चात शाही कारखाने में दीवान-ए-बयूतात के पद पर प्रतिष्ठित किया गया। अकबर के बाद जब जहाँगीर शासक बना तो मिर्ज़ा गियास बैग को एतमादउद्दौला की पदवीं से सम्मानित कर संयुक्त दीवान नियुक्त किया। मिर्ज़ा गियास बेग ने अपनी पुत्री मेहरून्निसा की शिक्षा दीक्षा का पूरा ध्यान रखा। यह अद्वितीय सुन्दर व चरित्रवान महिला थी। 17 वर्ष की आयु में उसका विवाह 1594 ई० में अब्दुररहीम खान-ए-खाना के अधीनस्थ एक फारसी युवक अली कुली खाँ से हुआ। विवाह के पश्चात् वह शाही सेवा में शामिल हुआ। अकबर ने अली कुली खाँ को शाहजादा सलीम के अन्तर्गत मेवाड़ अभियान के लिए नियुक्त किया। अली कुली द्वारा खाली हाथ से एक शेर मारने के उपलक्ष में सलीम ने उसकी वीरता से प्रसन्न होकर उसे शेर अफगान की उपाधि प्रदान की। शाहजादा सलीम ने जब विद्रोह किया तब अली कुली खाँ ने अकबर का साथ दिया था। किन्तु शासक बनने के बाद जहाँगीर ने उसे क्षमा कर दिया तथा उसे बंगाल के अन्तर्गत बर्दवान का फौजदार नियुक्त किया। किन्तु वह अपनी इस नियुक्ति से प्रसन्न नहीं था। इसी कारण उसने विद्रोही अफगानों के विरूद्ध कोई रूचि नहीं दिखाई। इस समय बंगाल में अशांति फैली थी। स्थिति पर नियंत्रण रखने के लिए मानसिंह को हटाकर कुतुबुद्दीन खाँ को बंगाल का सुबेदार बनाया गया तथा उसे आज्ञा दी गई कि वह अलीकुली को अपने अधीनस्थ करे। 9 अप्रैल, 1607 ई० को जब कुतुबुद्दीन राजाज्ञा का पालन करने के लिए बर्दवान गया तब वह शेर अफगन (अलीकुली) द्वारा मारा गया। तत्पश्चात् कुतुबुद्दीन के अंगरक्षकों ने भी शेर अफगन को मार दिया। जहाँगीर ने शेर अफगन की विधवा मेहरुन्निसा व उसकी पुत्री लाडली बेगम को राजधानी बुला लिया मेहरुन्निसा को राजमाता T रुकैय्या सुल्तान की सेवा में नियुक्त कर दिया गया। 1611 ई० में नौरोज के अवसर पर जहाँगीर ने मेहरून्निसा को देखा और उस पर आसक्त हो गया। उसे नूरमहल व नूरजहाँ की उपाधि प्रदान की तथा मई 1611 ई० में उसे से विवाह कर लिया। नूरजहाँ शिक्षित व तीक्षण बुद्धि वाली महिला थी उसे कविता, संगीत और चित्रकला के रूचि थी। फारसी में उसने कविताएं लिखी थी। उसने एक पुस्तकालय का निर्माण भी करवाया था जिसमें अनेक अमूल्य पुस्तकों का संग्रह था उसे वस्त्र, श्रृंगार व आभूषण का शौक था जिसमें नए-नए ढंग के तरीके निकाले थे। जहाँगीर से अपने विवाह के अवसर पर उसने एक अत्यन्त सुन्दर वस्त्र का निर्माण करवाया था जिसे नूरमहली के नाम से जाना गया। उसे आधुनिक फैशन का आविष्कारक माना जाता है। गुलाब से इत्र बनाने की विधि का अविष्कार नूरजहाँ की माँ अस्मत बेगम ने किया था। उसी ने इस विधि को सनी पुत्री नूरजहाँ को बताया इस प्रकार अस्मत बेगम तथा नूरजहाँ दोनों को गुलाब से इत्र का अविष्कारक माना जाता है। नूरजहाँ का विशेष गुण करूणा व उदारता था। यह विद्वानों और निर्धनों की सहायता करती थी। उसने सैकड़ों निर्धन लड़कियों का विवाह करवाया था। उसने कश्मीर में शालीमार बाग एवं निशात बाग का निर्माण करवाया।

जहाँगीर (Jahangir) notes in hindi

नूरजहाँ का राजनीतिक प्रभुत्व

विवाह के समय से ही नूरजहाँ का प्रभाव बढ़ने लगा। यह सिंहासन के पीछे की सत्ता बन गई तथा धीरे-धीरे सत्ता की पूरी शक्ति अपनी हाथों में केन्द्रित कर ली। बादशाह जहाँगीर ने उसे शासन करने तथा बादशाहत के चिन्ह धारण करने का भी अधिकार दे दिया। अब वह नाम मात्र का शासक रह गया। जहाँगीर स्वयं कहा करता था कि “मुझे आनन्द मनाने के लिए एक शेर शराब तथा आधा शेर मांस से अधिक और कुछ नहीं चाहिए।” यह जहाँगीर के साथ झरोखा दर्शन में जाने लगी। सिक्कों पर उसका नाम अंकित होने लगा तथा बादशाह के आदेश पत्रों पर बादशाह के हस्ताक्षरों के अतिरिक्त बेगम नूरजहाँ का नाम भी लिखा जाने लगा। विवाह के बाद नूरजहाँ के सगे सम्बन्धियों को योग्यतानुसार मुख्य पदों पर शीघ्र पदोन्नति हुई। उसके पिता एतयादउद्दौला को 1615 ई० में एक झण्डा तथा एक ड्रम रक्त के राजकुमारों के प्रतिमान प्रदान किया गया। उसी वर्ष उसे 7000 का मनसब प्रदान किया गया जो किसी भी अमीरों में सर्वोच्च था। नूरजहाँ के भाई अबुलहसन को 1611 ई० में मीर-ए-सामान अर्थात् शाही घराने का प्रधान नियुक्त किया गया। प्रारम्भ में इसे इतिकाद खान की उपाधि दी गई थी परन्तु तीन वर्ष पश्चात् उसे आसफ खान की उपाधि के साथ तीन हजार का व्यक्तिगत मनसब प्रदान किया गया। आसफ खान की पुत्री अर्जुमन्द बानो बेगम से ही 1612 ई० में जहाँगीर के तीसरे पुत्र खुर्रम का विवाह हुआ। नूरजहाँ के दो अन्य भाई सेनापति थे। इनमें एक भाई इब्राहिमखान 1615 में बिहार का सूबेदार था।

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नूरजहाँ गुट

अपने विवाह के कुछ ही वर्षो पश्चात् नूरजहाँ ने अपना दल बना लिया था नूरजहाँ गुट अथवा जनता ( JUNTA) गुट के नाम से पुकारा गया। इस गुट जिसे नूरजहाँ उसके पिता एत्मादउद्दौला, माता असमत बेगम, उसका भाई आसफ खाँ व में शाहजादा खुर्रम शामिल थे। इसमें सभी भोग्य व राज्य के शीर्ष पदों पर आसीन थे। प्रशासन पर इसका प्रभुत्व था। कुछ पुराने सरदार इस दल के विरोधी थे तथा ये नूरजहाँ के बढ़ते प्रभाव को पसन्द नहीं करते थे किन्तु उनकी स्थिति दुर्बल थी। इस दल का प्रभुत्व 1622 ई० तक स्थापित रहा। नूरजहाँ के प्रभुत्व काल को दो भागों में विभाजित किया जाता है-

प्रथम भाग 1611 से 1622 ई० तथा द्वितीय भाग 1622 से 1627 ई० ।

प्रथम काल में नूरजहाँ के माता-पिता जीवित थे। ये अपनी पुत्री को अपनी अनुभवों से लाभान्वित करते थे तथा उसकी महत्वाकांक्षाओं पर नियंत्रण रखते थे। शासन पर जहाँगीर का नियंत्रण था यद्यपि वह अप्रत्यक्ष रूप से नूरजहाँ तथा उसके गुट से प्रभावित व दिशा निर्देशित था। इस काल में नूरजहाँ व खुर्रम साथ थे। दूसरा भाग 1622 से 1627 तक रहा। यह काल नूरजहाँ के लिए घोर आपत्ति एवं कलह का काल था। इस काल में खुर्रम इस गुट से अलग हो गया था। 1621 में नूरजहाँ की माता असमत बेगम व 1622 ई० में उसकी पिता एतमादउद्दौला की मृत्यु हो गयी। माता और पिता के मृत्यु के कारण नूरजहाँ अनुभवी व दूर दर्शितापूर्ण परामशों से वंचित हो गयी। जहाँगीर अस्वस्थ रहने लगा था। इस कारण शासन के प्रति उसकी कोई रूचि नहीं थी। नूरजहाँ गुट भी भंग हो गया था जिसका कारण नूरजहाँ की महत्वाकांक्षा थी। खुर्रम जो नूरजहाँ गुट का सदस्य था भी महत्वकांक्षी था। अतः दोनों की महत्वाकांक्षाओं का टकराना स्वाभाविक था। शहजादा खुर्रम जिसे बाद में शाहजहाँ की पदवीं से विभूषित किया गया, राज्य का उत्तराधिकारी समझा जाता था। शाहजहाँ के बादशाह बन जाने के बाद नूरजहाँ शासन सत्ता का उपभोग नहीं कर पाती क्योंकि खुर्रम (शाहजहाँ योग्य व महत्वकांक्षी था अतः नूरजहाँ सत्ता पर अपनी पूर्ण प्रभाव बनाए रखने के लिए खुर्रम (शाहजहाँ को उत्तराधिकार से वंचित रखने का निश्चय किया तथा उसके स्थान पर शहरयार को प्रोत्साहित किया। शहरयार जहाँगीर का छोटा पुत्र था। इसी से नूरजहाँ ने शेर अफगान से उत्पन्न अपनी पुत्री लाडली बेगम का विवाह किया था शहरयार, प्रतिभाहीन व निर्बल व्यक्ति था।

जहाँगीर (Jahangir) notes in hindi

जहाँगीर की धार्मिक नीति

धार्मिक नीति के क्षेत्र में जहाँगीर ने अपने पिता का ही अनुकरण किया तथा सुलह-ए-कुल की नीति को कार्यान्वित रखा। उसका पालन पोषण एक उदार वातावरण में हुआ था। वह ईश्वर में विश्वास करता था तथा अपने धर्म की मुख्य बातों का पालन करता था। हिन्दू, मुस्लिम, सिख व ईसाई सभी धर्मों के मानने वालों को राज्य की ओर से सुविधाएं प्राप्त थी ।

इस्लाम धर्म- जहाँगीर एक मुस्लमान की भाँति नमाज पढ़ता था तथा अपने धर्म के मुख्य बातों का पालन करता था। किन्तु वह इस्लाम धर्म के सिद्धान्तों का कट्टरता से पालन नहीं किया।

हिन्दू धर्म- जहाँगीर अपने पिता अकबर की भाँति हिन्दू धर्म के प्रति सहिष्णुता की नीति अपनाया। उसके समय में हिन्दू राज्य के उच्च पदों पर नियुक्त हुए तथा उनके ऊपर कोई अतिरिक्त कर नहीं लगाया गया। उसने श्रीकान्त नामक हिन्दू को हिन्दुओं का जज नियुक्त किया था वह हिन्दुओं के त्यौहारों में स्वयं भाग लेता था। उसने अपने दरबार में दीपवाली, होली, दशहरा, राखी व शिवरात्रि आदि त्यौहारों को मनाने की रीति जारी रखा। जहाँगीर ने 1612 ई० (अपने राज्याभिषेक के सात ये वर्ष) में पहली बार रक्षा बन्धन का त्यौहार मनाया तथा अपनी कलाई पर राखी बंधवाया। अपने राज्याभिषेक के ग्यारहवें वर्ष अर्थात् 1616ई० में उसने शिवरात्रि के दिन योगियों से भेंट की।

दीपावली के अवसर पर जहाँगीर स्वयं जुआ खेलता था। पंजाब और गुजरात में गोहत्या बंद कराने का आदेश दिया था। हिन्दुओं को नए मंदिर बनवाने पर कोई प्रतिबन्ध नहीं था। उसी के समय में मथुरा में बीर सिंह बुंदेला ने एक भव्य मंदिर का निर्माण करवाया था। इसके अतिरिक्त बनारस में भी कई मंदिरों का निर्माण किया गया। जहाँगीर ने मंदिरों व ब्राह्मणों को दान और उपहार देने के अकबर के रिवाज को भी जारी रखा। 1612 से 1615 तक उसने वृन्दावन के चैतन्य पंथियों को पाँच अनुदान दिया। 1621 ई० में उसने हरिद्वार के ब्राह्मणों व संन्यासियों को दान दिया। वह जदरूप नामक एक हिन्दू संत से अत्यधिक प्रभावित था। यद्यपि जहाँगीर के समय में कुछ घटनाएं अवश्य घटी हैं किन्तु उसका कारण धार्मिक न हो राजनैतिक अधिक था । जैसे- उसने राजौरी के हिन्दुओं को इसलिए दण्डित किया क्योंकि वह मुस्लिम लड़कियों से विवाह कर उन्हें हिन्दु बना लेते थे। इसी प्रकार उसने अपने अजमे

जैन धर्म- जैनियों के प्रति जहाँगीर ने कुछ कठोर कदम अवश्य उठाया किन्तु उन्हें जैन धर्म को मानने में कोई बाधा उत्पन्न नहीं की गुजरात के जैनियों को दण्डित करने का दो कारण बताए जाते है- पहला कारण था कि श्वेतम्बर जैनियों के नेता मानसिंह ने खुसरो के विद्रोह के समय यह भविष्यवाणी की थी कि दो वर्ष के अन्तर्गत उसके साम्राज्य का अन्त हो जाएगा. किन्तु कुछ समय पश्चात् यह आदेश वापस ले लिया। दूसरा कारण नैतिक था। जैन भक्तों की बहु-बेटियां मंदिरों में रहने वाले जैने यात्रियों से मिलती थी। 1617 में जहाँगीर से जैन मंदिरों को बन्द करने तथा जैन यात्रियों को साम्राज्य से बाहर निकालने का आदेश किन्तु यह आदेश क्रियान्वित नहीं की जा सकी।

ईसाई धर्म- जहाँगीर ने पुर्तगाली फादर जेवियर से ईसाई धर्म की शिक्षा ग्रहण की थी। अन्य धर्मों की भांति ईसाईयों को भी अपने धर्मों को मानने तथा त्यौहारों व उत्सव को मनाने की छूट थी। जहाँगीर ईसाईयों को गिरजाघर बनाने के लिए आर्थिक सहायता प्रदान किया। किन्तु 1613 ई० में उसने पुर्तगालियों को दण्डित कर उनके गिरजाघरों को बंद करने का आदेश दिया। क्योंकि पुर्तगालियों ने गुजरात के बन्दरगाहों पर शाही जहाज को लूट लिये थे ।

सिख धर्म- सिखों के प्रति जहाँगीर के रूख और गुरु अर्जुनसिंह के साथ उसके व्यवहार के सम्बन्ध में काफी विवाद है। किन्तु यह स्पष्ट है कि जहाँगीर ने गुरु अर्जुन सिंह को दण्ड दिया क्योंकि गुरू अर्जुन खुसरो के विद्रोह के समय उसे आशिर्वाद दिया था। जहाँगीर की दृष्टि में यह राजद्रोह था। सिक्ख कथनों के अनुसार उसने चन्द्र शाह के कहने पर ऐसा किया था। किन्तु इसके अतिरिक्त जहाँगीर ने न तो किसी अन्य सिख गुरु को दण्डित किया और न ही सिख सम्प्रदाय के कार्यों में कोई हस्तक्षेप किया।

सूफी सन्त- अकबर की भाँति जहाँगीर भी विभिन्न पंथों के धार्मिक संतों से मिलने के लिए हमेशा उत्सुक रहता था। किन्तु यदि उसे ज्ञात हो जाता था कि किसी भी सूफी अथवा सन्त से साम्राज्य की शान्ति को हानि पहुँच सकती है तो वह उसके विरूद्ध कठोर दमन नीति अपनाने में संकोच नहीं करता था। जैसे 1619 ईο में उसने प्रसिद्ध सूफी सन्त शेख अहमद सरहिन्दी को ग्वालियर के दुर्ग में कैद कर दिया था। क्योंकि शेख अहमद सरहिन्दी ने मेहदी होने का दावा किया था तथा अनेक ऐसे उपदेश दिए थे जिनसे लोग राजद्रोही व धर्मद्रोही बन सकते थे। जहाँगीर को सबसे अधिक शांति वेदान्त के अनुयायियों के बीच मिलती थी। वेदान्त को वह तसव्वुफ शास्त्र कहता था। उनसे सानिध्य प्राप्त के लिए उसने अपने शासनकाल के ग्यारहवें वर्ष (1616 ई०) में उज्जैन निवासी जद्रूप गोसाई से भेंट की। जदुरूप के ज्ञान और सादगी से जहाँगीर बहुत प्रभावित था।

इस प्रकार जहाँगीर साम्राज्य के हितों को धर्म से ऊपर रखा। उसने उन सभी को दण्डित किया जिनसे साम्राज्य को खतरा उत्पन्न हो सकता था। वह साम्राज्य को धार्मिक असहिष्णुता एवं धर्मान्धता का शिकार नहीं होने देना चाहता था। सभी धर्मो का समान रूप से आदर कर अपने पिता अकबर की सुलहकुल की नीति को जारी रखा।

जहाँगीर (Jahangir) notes in hindi

जहाँगीर व यूरोपीयवासी

17वीं शताब्दी के अन्त में भारत में व्यापार करने के उद्देश्य से पुर्तगाली, डच और अंग्रेज भारत आए। उन्होंने भारत में अपने व्यापार का विकास करने तथा व्यापारिक सुविधाएं प्राप्त करने के उद्देश्य से मुगल बादशाहों से सम्बन्ध स्थापित किए।

पुर्तगाली – भारत और पुर्तगाल के संबंध 1498 ई० में वास्कोडिमा के आगमन के साथ प्रारम्भ हुआ। धीरे-धीरे पुर्तगालियों ने भारत के विभिन्न भागों में अपने व्यापारिक केन्द्र स्थापित कर लिये तथा समुद्री व्यापार पर उनका अधिकार हो गया। उनकी गतिविधियों का प्रमुख केन्द्र गोवा था। उस समय मुगलों की नौसैनिक शक्ति दुर्बल थी। इस कारण जहाँगीर पुर्तगालियों से मधुर संबंध बनाए रखना चाहता था। जहाँगीर ने उन्हें स्वतंत्रता पूर्वक आगरा व लाहौर में कैथोलिक चर्च स्थापित करने की स्वतंत्रता प्रदान की थी। इसके अतिरिक्त उन्हें मुगल साम्राज्य में अपने धर्म के प्रचार की भी छूट थी। किन्तु 1613 ई० में सूरत के निकट पुर्तगालियों ने चार शाही जहाजों को लूट लिया। इस समय सूरत का मुगल सुबेदार मुकर्रब खाँ था जिसने अंग्रेजी नौसेना कप्तान डॉनटन की सहायता से पुर्तगालियों को सामुद्रिक युद्ध में पराजित कर दिया। जहाँगीर ने पुर्तगालियों के विरूद्ध कठोर नीति अपनाई । उन्हें प्रदान की गई सारी व्यापारिक सुविधाएँ वापस ले ली गई तथा आगरा व लाहौर के उनके गिरजा घरों को भी बंद कर दिया गया। बाध्य होकर पुर्तगालियों ने जेसुइटों की सहायता से जहाँगीर से क्षमा मांगी तथा समझौता कर लिया। अतः उन्हें व्यापारिक सुविधाएं पुनः प्रदान कर दी गई।

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अंग्रेज – पुर्तगालियों की भांति अंग्रेजी भी भारत में व्यापार के उद्देश्य से आए तथा 1600 ई० ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कंपनी की स्थापना की। वे भारत में अपने व्यापारिक सुविधाएं प्राप्त करने के उद्देश्य से तत्कालीन मुगल साम्राट जहाँगीर के दरबार में कई दूत मण्डल भेजे। सर्वप्रथम 1608 ई० में कैप्टन विलियम हॉकिन्स इंग्लैण्ड के राजा जेम्स प्रथम के दूत के रूप में सम्राट अकबर के नाम पत्र लेकर बादशाह जहाँगीर के दरबार में उपस्थित हुआ। हॉकिन्स तुर्की एवं फारसी भाषा बोल सकता था। जहाँगीर उससे बहुत प्रभावित हुआ। उसने हॉकिन्स को 400 का मनसब तथा फिरंगी खाँ अथवा इंग्लिश खाँ की उपाधि से सम्मानित किया। वह तीन वर्ष तक मुगल दरबार में रहा किन्तु पुर्तगालियों के षड्यंत्र के कारण जहाँगीर से विशेषाधिकार पाने में असफल रहा। हॉकिन्स के पश्चात् जेम्स प्रथम का दूसरा दूत पॉलकेनिंग था को 1612 ई० में उसका पत्र लेकर मुगल दरबार में उपस्थित हुआ। किन्तु उसे भी सफलता नहीं मिली। 1615 ई० में तीसरे अंग्रेज दूत के रूप में विलियम एडवर्ड जेम्स प्रथम का पत्र लेकर बादशाह की सेवा में उपस्थित हुआ। यद्यपि वह कुछ सुविधा पाने में सफल रहा किन्तु यह अस्थायी सिद्ध हुआ। सभी अंग्रेजों दूतों में टॉमस रो प्रमुख था। वह जेम्स प्रथम का पत्र लेकर 1615 ई० में पादरी एडवर्ड टेरी के साथ मुगल शासक जहाँगीर के दरबार में उपस्थित हुआ। अपनी 40 व्यापारिक सुविधाओं को प्राप्त करने के उद्देश्य से उसने नूरजहाँ, आसफ खाँ व खुर्रम को बहुमूल्य उपहार दे कर अपने पक्ष में कर लिया।

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जहाँगीर का विजय अभियान

मेवाड़ विजय (1605-1615 ई०)- राजपूताना राज्यों में मेवाड़ ही एक मात्र एक राज्य था जिसने अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की तथा लगातार संघर्ष करता रहा। यहाँ का शक्तिशाली शासक राणा प्रतापसिंह था जो अकबर का समकालीन था। उसकी मृत्यु के पश्चात 1597 ई० में उसका पुत्र अमर सिंह गद्दी पर बैठा। इस समय मुगल शासक जहाँगीर था। अपने पिता की भाँति जहाँगीर ने भी मेवाड़ को अपने अधीन करने का प्रयास किया। इस उद्देश्य से उसने 1605 से 1615 ई० के मध्य मेवाड़ के विरुद्ध चार सैनिक अभियान भेजा। पहला अभियान जहाँगीर ने 1605 ई० में शाहजादा परवेज और आसफ खाँ के नेतृत्व में भेजा किन्तु सफलता नहीं हुआ। इसी समय खुसरो के विद्रोह के कारण शाहजादा परवेज को सेना सहित राजधानी लौटना पड़ा। खुसरो के विद्रोह को सफलतापूर्वक दबाने के बाद जहाँगीर ने एक बार पुनः मेवाड़ की ओर अपना ध्यान केन्द्रित किया। 1608 ई० में उसने महावत खाँ के नेतृत्व में एक विशाल सेना मेवाड़ विजय के लिए भेजा। महावल खाँ ने अमर सिंह को जंगलों में शरण लेने के लिए बाध्य किया किन्तु उसे इससे अधिक सफलता नहीं मिली । अतः जहाँगीर ने महावत खाँ को वापस राजधानी बुला लिया तथा 1609 ई० में उसके स्थान पर अब्दुल्ला खाँ को मेवाड़ के विरूद्ध नियुक्त किया। किन्तु अब्दुल्ला खान को भी कोई विशेष सफलता नहीं मिली। इसी बीच दक्षिण अभियान के लिए अब्दुल्लाह खान की आवश्यकता पड़ी अतः उसे मेवाड से वापस बुला लिया गया। मऊ के राजा बसु भी मेवाड़ में विफल रहे। अतः 1613 ई० में जहाँगीर स्वयं मेवाड के विरुद्ध सैन्य कार्यवाही का विचार बनाया। उसने अपना मुख्यालय अजमेर स्थानांतरित की तथा शाहजादा खुर्रम व मिर्जा अजीज कोका को अमर सिंह के विरूद्ध नियुक्त किया। किन्तु खुर्रम व मिर्जा अजीज कोका के मध्य संबंध कटु थे इसलिए अजीज कोका को वापस बुला लिया। युद्ध का संचालन अब खुर्रम के हाथों में था। खुर्रम ने योजनाबद्ध तरीके से मेवाड़ पर आक्रमण किया। राजपूतों द्वारा सुरक्षित तथा बाधित क्षेत्रों को अवरुद्ध कर दिया. यहाँ तक कि इन क्षेत्रों की ओर जाने वाले जलमार्गो को बंद कर दिया तथा उनकी दिशा को भी परिवर्तित कर दिया। इसी समय मेवाड़ में अकाल व महामारी का प्रकोप हो जाने के कारण स्थिति दयनीय हो गयी। अन्तोगत्वा विवश होकर अमर सिंह ने अपने मामा शुभकर्ण तथा विश्वासपात्र सामन्त हरदास झाला को मुगलों के पास संधि हेतु भेजा। राजकुमार खुर्रम की सिफारिश पर सम्राट जहाँगीर ने मेवाड के साथ अति उदार शर्तों पर शांति समझौता करने के लिए सहमत हो गया। अमर सिंह ने मुगलों की अधीनता स्वीकार कर ली। 1615 ई० में अमर सिंह व बादशाह जहाँगीर के मध्य एक संधि हुई जिसके अनुसार-

1.अमर सिंह ने बादशाह जहाँगीर की अधीनता स्वीकार कर ली।

2. अमर सिंह ने अपने पुत्र युवराज कर्ण को अपनी सेना के साथ वादशाह की सेवा में भेजने का वचन दिया।

3. अमर सिंह को चित्तौड़ (चित्तूर) दुर्ग इस शर्त पर लौटाया गया कि वह न तो उसकी किलाबंदी करेगा और न ही उसकी मरम्मत कराएगा।

4. इस प्रकार मेवाड़ और मुगलों का दीर्घ कालीन संघर्ष समाप्त हुआ। मेवाड़ जिस ने अकबर के पूरे शासन काल में अपनी स्वतंत्र अस्तित्व की लड़ाई लड़ता रहा. जहाँगीर के काल में मुगलों की अधीनता स्वीकार कर ली। अमर सिंह को राजदरबार में उपस्थित होने अथवा राजसेवा में शामिल होने के लिए विवश नहीं किया गया और न ही उसे मुगल शासक घराने के साथ किसी प्रकार का वैवाहिक संबंध बनाने के लिए बाध्य किया गया। जहाँगीर ने मेवाड़ अभियान की सफलता पर खुर्रम को पन्द्रह हजार का मनसब प्रदान किया तथा शाह सुरंग की उपाधि से विभूषित किया।

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जहाँगीर का दक्षिण अभियान

अपने पिता अकबर की भांति जहाँगीर ने भी दक्षिण नीति का अनुसरण किया। अकबर ने खानदेश व बरार को विजित कर मुगल साम्राज्य में मिला लिया था। उसने अहमदनगर के कुछ क्षेत्र को भी अधिकृत कर लिया था किन्तु राज्य का प्रमुख भाग अभी भी निजामशाही अमीरों के नियंत्रण में था। जहाँगीर ने अपने पिता के अधूरे कार्य को पूर्ण करने का निश्चय किया तथा अपना ध्यान दक्षिण की ओर आकर्षित किया।

अहमदनगर के साथ संघर्ष- मुगलों की दक्षिण भारत विजय में सबसे बड़ी बाधा अहमदनगर था। यहाँ का शासन मलिक अम्बर के अधीन था। मलिक अम्बर अहमदनगर का योग्यतम प्रधानमंत्री था। वह अबीसीनिया का निवासी था। उसे कासिम ख्वाजा नामक एक व्यक्ति ने बगदाद के बाजार से खरीदा था तथा अहमदनगर के मुर्तजा निजामशाह प्रथम के मंत्री मीरक दबीर चंगेज खाँ के हाथों बेच दिया। बरार व खानदेश पर मुगलों के अधिकार के बाद मलिक अम्बर बीजापुर राज्य में नौकरी कर ली। परन्तु बाद में पुनः अहमदनगर चला आया। उसने निजामशाही वंशज के मुर्तजा II निजामशाह को सुल्तान नियुक्त कर स्वयं उसका प्रधानमंत्री बन गया तथा अपना मुख्यालय खिड़की अथवा खाड़की में स्थापित की। अकबर की मृत्यु के तत्काल बाद उसने अहमदनगर के उन सभी प्रदेशों पर पुनः अधिकार कर लिया जिसे मुगलों ने अधिकृत कर लिया था। अतः जहाँगीर ने अपना ध्यान अहमदनगर की ओर आकर्षित किया। उसने 1608 ई० में अब्दुर्रहीम खाने खाना के नेतृत्व अहमदनगर के विरुद्ध अभियान भेजा किन्तु कोई सफलता नहीं मिली। 1610 ई० में जहाँगीर ने शाहजादा परवेज को दक्कन भेजा किन्तु यह पराजित हुआ और मलिक अम्बर के हाथों उसे एक अपमानजनक संधि करनी पड़ी। 1611 ई० में मुगलों ने अहमदनगर को पुनः जीतने का प्रयास किया तथा दोतरफा आक्रमण करने की योजना बनाई। जिसके अनुसार खानेजहाँ और मानसिंह को बरार और खानदेश से तथा अब्दुल्लाह खाँ को गुजरात की ओर से प्रस्थान करना था। किन्तु निर्धारित समय से पूर्व ही अब्दुल्लाह खाँ ने अहमदनगर पर आक्रमण कर दिया और मलिक अम्बर द्वारा पराजित हुआ। इस प्रकार यह अभिमान भी असफल रहा। तत्पश्चात् जहाँगीर ने अब्दुर्रहीम खान-ए-खाना को पुनः दक्षिण अभियान का सेनाध्यक्ष नियुक्त किया। उधर मलिक अम्बर अपनी सफलता के बाद अहंकारी हो गया जिससे उसके कई मित्र नाराज हो गए। खान-ए-जहाँ ने स्थिति का लाभ उठाकर अनेक हब्शियों व मराठा सरदारों को अपनी ओर मिला लिया जिसमें- जगदेव राय, बाबा जी काटे, उदाजी राम मालोजी व कान्होजी प्रमुख थे। जहाँगीर स्वयं भी मराठों के महत्व के प्रति पूरी तरह सजग था। अपनी आत्मकथा तुजुक ए-जहाँगीरी में उसने लिखा है कि “मराठे सख्त जान हैं और मुल्क के विरोध का केन्द्र है।” जहाँगीर प्रथम मुगल सम्राट था जिसने मराठों को अपनी सेना में उमरावर्ग में शामिल किया। मराठा सरदारों की सहायता से अब्दुर्रहीम खान-ए-खाना 1616 ई० में अहमदनगर, बीजापुर और गोलकुण्डा की संयुक्त सेनाओं को करारी शिकस्त दी। मुगलों ने नई निजाम शाही राजधानी खिड़की पर अधिकार कर लिया। इस पराजय के बाद मुगल विरोधी दक्कनी गठबंधन पूरी तरह चरमरा गया। किन्तु मलिक अम्बर ने अपना प्रतिरोध जारी रखा। खान-ए-खाना की विजय को पूर्णता प्रदान करने के लिए जहाँगीर ने 1617 ई० में शाहजादा खुर्रम (शाहजहाँ) को एक विशाल सेना के साथ दक्कन अभियान पर भेजा तथा उसकी सहायता के लिए स्वयं मांडू पहुँचा। ऐसी स्थिति में मलिक अम्बर के पास आत्मसर्पण के अलावा और कोई विकल्प नहीं था। अतः 1617 ई० में बीजापुर के सुल्तान अली आदिशाल की मध्यस्थता से मलिक अम्बर व जहाँगीर के मध्य शांति समझौता सम्पन्न हुआ जिसके

अनुसार—

  1. निजामशाही शासकों ने जहाँगीर की अधीनता स्वीकार कर ली।
  2. अहमदनगर के किले सहित बालाघाट के क्षेत्रों को मुगल सम्राट को स्थानांतरित कर दिया गया।
  3. दक्कन के शासको ने मुगल बादशाह को वार्षिक कर देना भी स्वीकार किया। दक्कन की इस महान सफलता के बाद जहाँगीर ने प्रसन्न होकर खुर्रम को 30,000 का मनसब व शाहजहाँ की उपाधि से सम्मानित किया। इसके अतिरिक्त उसने मध्यस्था की भूमिका निभाने वाले आदिलशाह को फर्जन्द अथवा पुत्र की उपाधि दी मलिक अम्बर बहुत दिनों तक इस संधि का पालन

नहीं कर सका। उसने बीजापुर और गोलकुण्डा के राज्यों से गठबंधन कर 1620 ई० में मुगलों को सौंपे गए सभी क्षेत्रों पर पुनः अधिकार कर लिया। शाहजादा खुर्रम को पुनः मलिक अम्बर के विरूद्ध नियुक्त किया गया। शाही सेनाओं की आगमन की सूचना पाकर मलिक अम्बर ने अहमदनगर की घेराबंदी उठा ली तथा मुगलों की अधीनता स्वीकार कर ली। उसने मुगलों को ये सभी प्रदेश लौटा दिया जिसे पुनः अधिकृत किया था। इसके अतिरिक्त उसे 28 मील का भूभाग तथा 18 लाख रूपए भी मुगलों को प्रदान करना पड़ा। बीजापुर और गोलकुण्डा ने अहमदनगर राज्य की सहायता की थी अतः बीजापुर को 12 लाख रूपए व गोलकुण्डा को 25 लाख रूपए हर्जाने के रूप में देना पड़ा।

1622 ई० में जहाँगीर के विरुद्ध शाहजादा खुर्रम के विद्रोह के कारण दक्कन में पुनः अव्यवस्था फैल गई। स्थिति का लाभ उठा कर मलिक अम्बर ने पुनः मुगल अधिकृत क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया। विद्रोह के कारण जहाँगीर को अब दक्कन की ओर ध्यान देने का अवसर नहीं मिला। इस प्रकार दक्कन में मुगलों की स्थिति मजबूत बनाने का जहाँगीर का प्रयास असफल रहा। 1626 ई० में मलिक अम्बर की मृत्यु हो गयी। अतः दक्षिण की समस्या पूर्ववत् बनी रही। मलिक अम्बर एक योग्य प्रशासक व कुशल सेनापति था। उसने दक्षिण में टोडरमल की भू-राजस्व प्रणाली को लागू किया। उसने भूमि की नाप करवायी तथा पैदवार का 1/3 भाग लगान के रूप में वसूल किया। सेना में उसने बड़ी संख्या में मराठों को भर्ती किया तथा मुगलों के विरुद्ध गुरिल्ला युद्ध नीति अपनायी। गुरिल्ला युद्ध नीति को दक्कनी भाषा में वर्गी-गिरी कहा जाता था। मलिक अम्बर ने अबीसिनिया के अरबों और जंजीरा की सिद्धियों की सहायता से एक शक्तिशाली नौसेना भी स्थापित की थी

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काँगड़ा विजय (1620 ई०)- उत्तरी-पूर्वी पंजाब में काँगड़ा का दुर्ग अभेद्य माना जाता था। अकबर ने काँगड़ा दुर्ग पर अधिकार करने के लिए खाने जहाँ को नियुक्त किया किन्तु वह सफल नहीं हुआ जहाँगीर ने काँगड़ा विजय का निश्चय किया। इस उद्देश्य से उसने 1615 ई० में लाहौर के सूबेदार मुर्तजा खाँ को काँगड़ा अभियान के लिए नियुक्त किया किन्तु उसे सफलता नहीं मिली। तत्पश्चात् यह दायित्व 1618 ई० में शाहजादा खुर्रम को सौंपा गया। खुर्रम ने काँगड़ा दुर्ग का घेरा डाला तथा दुर्ग में रसद पहुँचने के सभी मार्च को अवरुद्ध कर दिया। चौदह माह के घेराबंदी के बाद 16 नवम्बर, 1620 ई० को किले पर मुगलों का अधिकार हो गया।

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कन्धार की पराजय (1622 ई०)- वाणिज्यिक और सैनिक दृष्टि से महत्वपूर्ण होने के कारण कन्धार, मुगलों व फारस के मध्य लम्बे समय तक संघर्ष का विषय रहा। 1558 ई० तक कंधार पर मुगलों का अधिकार रहा किन्तु इसके पश्चात् यह ईरान के शाह के अधिकार में चला गया। अकबर ने अपनी कूटनीतिक दक्षता से 1595 ई० में इस पर पुनः अधिकार कर लिया। शासक बनने के बाद जहाँगीर खुर्रम का विद्रोह, मेवाड़ विजय एवं दक्षिण के राज्यों की समस्याओं में उलझा रहा। अतः उसे कंधार की ओर ध्यान देने का विशेष अवसर नहीं मिला। जहाँगीर की व्यस्तता का लाभ उठाकर ईरान के शाह अब्यास ने खुरासानी और अन्य अमीरों को कंधार पर अधिकार करने के लिए उत्साहित किया किन्तु सफल नहीं हुआ। अतः उसने कूटनीतिक चाल चली तथा समझौताकारी रूप अपनाते हुए जहाँगीर को प्रसन्न करने के उद्देश्य से 1607 से 1621 के बीच अपना चार शिष्टमण्डल बहुमूल्य उपहारों के साथ आगरा भेजा। उसने आश्वासन दिलाया कि कंधार विजय में उसकी कोई रूचि नहीं है। दूसरी ओर वह अपनी स्थिति को सुदृढ़ करता रहा। जहाँगीर उसकी चाल को समझ नहीं सका। मुगल दरबार में चल रही गुटबंदी तथा कंधार के प्रति जहाँगीर की निश्चितता का लाभ उठाकर शाह अब्बास ने 1622 ई० में कंधार पर आक्रमण कर अधिकार कर लिया। इस समय नूरजहाँ ने खुर्रम के विरुद्ध षडयंत्र रचना शुरू कर दिया था तथा शहरयार को उत्तराधिकारी के रूप में प्रतिष्ठित करना चाहती थी। उसने बादशाह जहाँगीर से खुर्रम को कंधार अभियान पर जाने के लिए आदेश जारी करवाया किन्तु खुर्रम ने शाही आदेश मानने से इंकार कर दिया क्योंकि उसे नूरजहाँ षड्यंत्र का अभास था। अतः खुर्रम ने विद्रोह कर दिया। कंधार पर शाह अब्बास का अधिकार हो गया। इस प्रकार जहाँगीर के काल में पुनः कंधार मुगलों के हाथ से निकलकर ईरान के पास चला गया।

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जहाँगीर की मृत्यु

1627 ई० में जहाँगीर लाहौर से कश्मीर गया। उसका स्वास्थ्य अत्यन्त बिगडता जा रहा। उसे दमे का दौरा पड़ा। कश्मीर के जलवायु से भी उसके स्वास्थ्य में कोई सुधार नहीं हुआ इसलिए वह पुनः लाहौर के लिए प्रस्थान किया। मार्ग में ही 28 अक्टूबर, 1627 ई० को भिम्बर नामक स्थान पर उसकी मृत्यु हो गयी। उसके शव को लाहौर में रावी नदी के तट पर शहादरा नामक स्थान पर दफनाया दिया गया।

जहाँगीर (Jahangir) notes in hindi

परीक्षा दृष्टि

1. वर्ष 1605 ई. में जहाँगीर का राज्याभिषेक कहाँ किया गया? –आगरा
2. जहाँगीर की पत्नी नूरजहाँ के बचपन का नाम क्या था? –मेहरुन्निसा
3. मुगल चित्रकला किस शासक के काल में अपनी पराकाष्ठा पर पहुँची ? – जहाँगीर
4. द्वि-अस्पा एवं सिंह अस्पा प्रथा किस शासक द्वारा प्रारम्भ की गयी थी? – जहाँगीर
5. मुगलों एवं मेवाड़ के राणा के मध्य चित्तौड़ की संधि किस शासक के शासनकाल में हस्ताक्षरित हुई थी? –जहाँगीर
6. ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने जहाँगीर के दरबार में सबसे पहले किसे भेजा था? – विलियम हॉकिन्स
7. जहाँगीर ने इंग्लिश खान की उपाधि से किस अंग्रेज को सम्मानित किया था? – विलियम हॉकिन्स
8. भारत में किस मुगल शासक का मकबरा स्थित नहीं है? –बाबर (काबुल) एवं जहाँगीर (लाहौर)
9. जहाँगीर के दरबार में पक्षियों का सबसे बड़ा चित्रकार कौन था? –उस्ताद मंसूर
10. मुगल बादशाहों में किसने अपनी आत्मकथा (Autobiography) फारसी में लिखी? –जहाँगीर
11. जहाँगीर के शासनकाल में प्रमुख चित्रकार कौन थे? –उस्ताद मंसूर तथा अबुल हसन
12. आगरा में एत्मादुद्दौला का मकबरा किसके द्वारा बनवाया गया? –नूरजहाँ
13. मरियम-उज-जमानी का मकबरा किसके द्वारा बनवाया गया ? -जहाँगीर
14. गुलाब से इत्र निकालने की विधि को किसके द्वारा विकसित किया गया ? –अस्मत बेगम (नूरजहाँ की माँ)
15. अबुल फजल के हत्यारे को किसने पुरस्कृत किया था? जहाँगीर
16. जहाँगीर ने थामस रो को कहाँ मिलने का अवसर दिया था? – अजमेर
17. मुगलों एवं मेवाड़ के राणा के मध्य ‘चित्तौड़ की संधि’ किस शासक के शासनकाल में हस्ताक्षरित हुई थी ? जहाँगीर
18. एक डच पर्यटक, जिसने जहांगीर के शासनकाल का मूल्यवान विवरण दिया है, वह था – फ्रांसिस्को पेलसर्ट
19. जहांगीर ने किस चित्रकार को नादिर-उज जमां की पदवी दी थी? अबुल हसन को
20. जहांगीर कालीन किस एक चित्रकार को नादिर-उल-असर की उपाधि प्रदान की गई थी? मंसूर को

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