उत्तराखंड के धार्मिक एवं पर्यटन स्थल
UTTARAKHAND MCQ

उत्तराखंड के धार्मिक एवं पर्यटन स्थल religious and tourist place in uttarakhand

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पावन, शान्त एवं स्वास्थ्यवर्धक पर्यावरण के कारण प्राचीन काल से ही उत्तराखंड ऋषि-मुनियों का आश्रय स्थल रहा है। उत्तराखंड की समस्त भूमि प्राकृतिक सौन्दर्य से परिपूर्ण है। इस भूमि की पवित्रता के कारण यहाँ अनेक धार्मिक स्थलों का भी आविर्भाव हुआ। अनेक धार्मिक स्थलों की उपस्थिति राज्य के पर्यटन उद्योग के लिए वरदान साबित हुई है यही कारण है उत्तराखंड में पर्यटन धार्मिक पर्यटन के रूप में अधिक विकसित हुआ। पर्यटन उद्योग के लिए इस राज्य में अपार संभावना है। यहाँ प्रतिवर्ष 1 करोड़ से अधिक पर्यटक आते हैं। उदाहरण के तौर पर वर्ष 2001 में यहाँ आने वाले पर्यटकों की संख्या 1 करोड़ 6 लाख थी। वहीं 2002 में यह संख्या 1 करोड़ 16 लाख से अधिक हो गयी जिनमें 54 हजार से अधिक पर्यटक विदेशी थे। उत्तराखंड में अनेक ऐसे स्थल है जो न केवल अपने असीम प्राकृतिक सौन्दर्य के कारण वरन् अपनी धार्मिकता के कारण भी विश्व विख्यात हैं। इनमें से कुछ विख्यात धार्मिक एवं पर्यटन स्थल निम्नलिखित हैं-

केदारनाथ

यह स्थल रुद्रप्रयाग जनपद में अलकनंदा एवं मंदाकिनी नदियों के मध्य में समुद्रतल से 11850 फुट (3581 मी0) लगभग ऊँचाई पर स्थित भगवान शिव का भारत प्रसिद्ध धार्मिक स्थल है। यह 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक है। हिन्दु मान्यता के अनुसार प्राचीनकाल में नर-नारायण नामक दो ऋषि थे उन्होंने इस स्थल पर भगवान शिव की घोर तपस्या की। प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें दर्शन दिये तथा इस स्थल पर ज्योतिर्लिंग के रूप में निवास करने का वचन दिया। कहा जाता है कि पाण्डवों ने महाभारत युद्ध के पश्चात् इस स्थल पर मन्दिर का निर्माण किया तथा तपस्या की। पाण्डवों द्वारा निर्मित मन्दिर की कालान्तर में आदि शंकराचार्य आदि ने जीर्णोद्वार किया। यहाँ स्थित मन्दिर कत्यूरी शैली में निर्मित है इस पर दक्षिण की वास्तु शैली का प्रभाव भी स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। इस मन्दिर की एक प्रमुख विशेषता है कि यहाँ शिव लिंग सामान्य प्रचलित आकृति का न होकर तिकोनाकार है। मन्दिर के गर्भ गृह में अन्य देवी-देवताओं के अतिरिक्त पाण्डवों की भी मूर्तियाँहै। मन्दिर के बाहर विशाल प्रस्तर मूर्ति नंदी की बनी है। मन्दिर के पास ही आदि शंकराचार्य की समाधि स्थापित है। यहाँ अनेक जल कुण्ड भी है। केदारनाथ का मन्दिर केदार समूह के अर्थात् पंचकेदार मन्दिरों में सर्वाधिक प्रसिद्ध है। केदारनाथ के अतिरिक्त केदार समूह के मन्दिर मध्यमेश्वर, कल्पेश्वर, रुद्रनाथ तथा तुंगनाथ है। तुंगनाथ सर्वाधिक ऊँचाई पर स्थित है। यहाँ स्थित शिवलिंग को स्वयंभू लिंग माना जाता है। इस मन्दिर में पूजा-पाठ स्थानीय पुजारी द्वारा की जाती है। जबकि अन्य चार केदार समूह के मन्दिरों में पूजा दक्षिण के पुजारियों द्वारा की जाती है। पंचकेदार समूह के पांचों मन्दिरों में से केदारनाथ में भगवान शिव के पृष्ठ भाग, मध्यमेश्वर में शिव की नाभि, कल्पेश्वर में शिव की जटाओं, रुद्रनाथ में स्वयंभुमुखार बिन्दु तथा तुंगनाथ में भुजाओं की पूजा की जाती है। शीतकाल में उच्च शिखरों में बर्फ पड़ने पर केदारनाथ के भगवान शिव की पूजा उखी मठ के ओंकारेश्वर मन्दिर में की जाती है।

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कैलाश मानसरोवर

यह स्थान तिब्बत (चीन) में स्थित है इसे प्राचीन भारतीय साहित्य में भगवान शिव एवं देवी पार्वती का निवास स्थान माना जाता है। कैलाश पर्वत तथा उसके निकट स्थित झोल मानसरोवर के बारे में वाल्मीकि रामायण तथा महाभारत में अनेक स्थानों में उल्लेख मिलता है। महाभारत के भीष्म पर्व में कैलाश पर्वत को हेमकूट भी कहा गया है। कालीदास ने भी इस स्थल का वर्णन अपने साहित्य में किया है। यह स्थल प्राचीन काल से ही पावन माना गया है। यहाँ की यात्रा करना शुभ माना जाता है। प्राचीन काल से ही धर्म पर आस्था रखने वाले भारतीय यहाँ की यात्रा करते रहे हैं। उत्तराखंड के प्राचीन शासकों ने इस यात्रा को निर्विघ्न बनाने का सदैव प्रयत्न किया क्योंकि तिब्बत के हूण देश के हुणिये यहाँ की यात्रा में विघ्न डालते रहते थे। कैलाश मानसरोवर की समुद्रतल से लगभग 22000 फीट की ऊँचाई है। कैलाश पर्वत तथा मानसरोवर का हिन्दू धर्मावलम्बियों के लिए विशेष महत्व है यही कारण है कि भारत सरकार का विदेश मंत्रालय प्रति वर्ष कैलाश मानसरोवर यात्रा का आयोजन करवाता है। इस यात्रा का प्रारम्भ दिल्ली से होता है। इस यात्रा हेतु यात्रियों का विशेष चयन किया जाता है विशेषकर स्वस्थ्य व्यक्तियों को ही इस यात्रा हेतु अनुमति दी जाती है। इस यात्रा की कुल लम्बाई 864 किमी है। दिल्ली से तवाघाट तक बस द्वारा तत्पश्चात् शेष यात्रा पैदल तय की जाती है। सन् 2005 इस यात्रा का रजत जयन्ती वर्ष था। इस यात्रा का स्वतन्त्र भारत में प्रारम्भ 1981 से किया गया। इस वर्ष 59 श्रद्धालुओं ने कैलाश मानसरोवर की यात्रा की तत्पश्चात् यात्रियों की संख्या निरन्तर बढ़ती ही गयी। सन् 2004 में यह संख्या 537 हो गयी। इससे पूर्व 1998 597 यात्रियों ने यात्रा की थी। इस यात्रा का प्रबन्ध कुमाऊँ मण्डल विकास निगम द्वारा किया जाता है। यह यात्रा दुर्गम मार्गों एवं प्राकृतिक खतरों से भरी है। वर्ष 1998 में जबकि 597 यात्रियों ने कैलाश मानसरोवर की यात्रा की जो कि 2004 तक यात्रा करने वाले श्रद्धालुओं की सर्वाधिक संख्या है। इस यात्रा के वापसी पर मालपा नामक स्थान पर कई यात्री भूस्खलन के शिकार हो गये थे। यह यात्रा लिपुलेख दर्रे से होकर जाती है। नावी भारत में स्थित इसका अन्तिम पड़ाव है। भारत की प्रमुख नदियों, सिन्धु, सतलज एवं ब्रह्मपुत्र का उद्गम स्थल भी मानसरोवर ही है।

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नानक मत्ता

नानकमत्ता सिक्खों का एक प्रसिद्ध तीर्थस्थल है। यह ऊधमसिंह नगर जनपद में स्थित है। यहाँ नानकमत्ता साहिब नामक अत्यन्त मनोहारी गुरुद्वारा है। नानकमत्ता के बारे में मत है कि 1529 ई0 में गुरुनानक जी करतारपुर पाकिस्तान से यहाँ पहुँचे। गुरुवाणी में नानक की इस यात्रा को तीसरी उदासी के नाम से जाना जाता है। उस समय यह स्थान नाथ जोगियों का अखाड़ा था। ये नाथ जोगी अंहकारी स्वभाव के थे। नानकजी ने इन नाथ- जोगियों के अंहकार को तोड़ा तथा उन्हें गुरुवाणी का संदेश दिया। यहाँ पर वह पवित्र वृक्ष है जिसके नीचे बैठकर गुरुनानक ने तपस्या की थी। अवध के राजकुमार नवाब मेहन्दी अली खाँ ने गुरु गोविन्द से प्रभावित होकर नानकमत्ता क्षेत्र की भूमि उन्हें भेंट स्वरूप प्रदान की। प्रतिवर्ष दीपावली में यहाँ मेला लगता है। यह मेला मुगल बादशाह औरंगजेब की ग्वालियर जेल से सिक्खों के छठे गुरु हरगोविन्द सिंह की रिहाई की खुशी में अमृतसर की तर्ज में आयोजित होता है। श्वेत आभा से मंडित नानकमत्ता साहिब गुरुद्वारा में नानक सरोवर भी है। नानकमत्ता में ही नानकसागर नामक एक विशाल बांध भी है जिसमें नौकायन एवं मछली पालन होता है। इस विशाल बांध से आसपास के स्थानों में सिंचाई की जाती है।

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बद्रीनाथ

बद्रीनाथ भारत का एक प्रसिद्ध हिन्दू तीर्थ स्थान है। यह हिन्दुओं के चार धामों में से एक है। मान्यता है कि भगवान विष्णु ने नर-नारायण के रूप में गंधमादन पर्वत पर बद्री (बेर) के वन में तपस्या की थी। यहाँ आज भी नर एवं नारायण दो पर्वत विद्यमान है। महाभारत काल में भी बद्रीनाथ मन्दिर की मान्यता का उल्लेख मिलता है। महाभारत के वन पर्व एवं भीष्म पर्व में इसका वर्णन मिलता है। पाण्डवों ने यहाँ की यात्रा की थी। मान्यता है कि महाभारत के रचनाकार महर्षि व्यास ने यहाँ पर स्थित व्यास गुफा में महाभारत की रचना की थी। बद्रीनाथ मन्दिर चमोली जनपद में 3133 मी. की ऊँचाई पर अलकनंदा नदी के दायें किनारे पर स्थित है। इस मन्दिर में बद्रीनाथ जी का विग्रह काले शालिग्राम शिला पर अंकित है। कहा जाता है कि शालिग्राम को अनास्तिकों द्वारा कई बार अलकनंदा एवं तप्त कुण्ड में फेंक दिया गया। जहाँ से निकालकर उन्हें पुनः मन्दिर में स्थापित किया गया। मन्दिर के गर्भ गृह मैं स्थित बद्रीनाथ जी की पदमासन चतुर्भुजी मूर्ति के दो हाथों में क्रमशः शंख एवं चक्र तथा अन्य दो हाथ ध्यान की मुद्रा में हैं। सुबह से दोपहर एवं शाम चार बजे से आठ बजे तक मन्दिर श्रद्धालुओं हेतु खुला रहता है। इस बीच भगवान बद्री की पूजा प्रक्रिया निमालयन दर्शन, अभिषेक दर्शन, अलंकार दर्शन एवं आरती दर्शन आदि चरणों में की जाती है। इस मन्दिर में भगवान बद्रीनाथ जी के शरीर में मले चन्दन को प्रसाद के रूप में भक्तों में बांटा जाता है भक्तों को भगवान की पूजा हेतु वन तुलसी, कच्चे चने, नारियल एवं मिश्री लाने की आज्ञा है। इस मन्दिर के मुख्य पुजारी को रावल कहा जाता है। जो केरल के नंबूदरी मूल का ब्राह्मण होता है। रावल की सहायता के लिए डिमरी, वेद पाठ के लिए नौटियाल तथा धर्माधिकारी के रूप में बहुगुणा स्थानीय ब्राह्मण जातियों की नियुक्ति गढ़ नरेश अजयपाल द्वारा की गयी थी। यहाँ अनेक कुण्ड, अनेक गुफायें एवं शिलायें भी हैं। बद्रीनाथ जी की मूर्ति के अतिरिक्त अन्य देवी देवताओं की भी अनेक मूर्तियाँ यहाँ हैं। शीतकाल में बद्रीनाथ जी की पूजा जोशी मठ में की जाती है। बद्रीनाथ पंच बद्रियों में सबसे विख्यात तीर्थ स्थान हैं। पंच बद्री समूह के अन्य मन्दिर आदि बद्री, योग बद्री, भविष्य बद्री एवं वृद्ध बद्री है। योग बद्री में विष्णु को वासुदेव के रूप में पूजा जाता है। भविष्य बद्री विष्णु के अवतार नर सिंह के रुप में विष्णु भगवान की पूजा की जाती है। मान्यता है कि बद्रीनाथ जी के दर्शन केदारनाथ दर्शन के पश्चात् करने चाहिए। यमुनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ एवं बद्रीनाथ के दर्शन हेतु यात्रा पश्चिम से पूर्व की ओर अर्थात यमुनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ एवं अन्त में बद्रीनाथ में करने की परम्परा है

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गंगोत्री

यह स्थल हिन्दुओं का एक पावन तीर्थ है। यह उत्तरकाशी जनपद में 3140 मी0 ऊँचाई में स्थित है। धार्मिक मान्यतानुसार इसी स्थान पर स्थित एक शिला पर बैठकर राजा भगोरथ ने तपस्या की तथा गंगा को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाये। इस तीर्थ में श्वेत संगमरमर का मन्दिर स्थित है। भागीरथी के दाये स्थित गंगा माँ के इस मन्दिर का निर्माण 18वीं सदी में गोरखा सेनापति अमर सिंह थापा द्वारा किया गया। गंगा का वास्तविक उद्गम स्थल गंगोत्री से 18 किमी दूर गोमुख ग्लेशियर में है। भगीरथ से सम्बन्धित होने के कारण गंगा को इस स्थान पर भगीरथी के नाम से जाना जाता है। शीतकाल में यह मन्दिर दर्शनार्थ बन्द हो जाता है तथा गंगाजी को डोली में बैठाकर मुखबा नामक ग्राम में मार्कण्डेय मन्दिर में शीत प्रवास हेतु ले जाया जाता है तथा वहीं उनकी पूजा की जाती है। ग्रीष्मकाल में पुनः गंगोत्री तीर्थ के कपाट खोले जाते हैं। गंगोत्री मन्दिर के निकट भगीरथ शिला नाम की शिला है। मान्यता है कि इसी पर बैठकर भगीरथ ने तपस्या की थी।

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यमुनोत्री

उत्तरकाशी जनपद में स्थित यमुनोत्री हिन्दुओं का एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थल है। केदारनाथ, बद्रीनाथ की यात्रा का यह प्रथम चरण माना जाता है। गंगोत्री, केदारनाथ एवं बद्रीनाथ की यात्रा का प्रारम्भ सर्वप्रथम यमुनोत्री के दर्शन करके ही किया जाता है। यमुनोत्री को पावन नदी यमुना का उद्गम स्थल माना जाता है। वास्तविक रूप से यमुना का उद्गम स्थल यमुनोत्री से 10 किमी. दूर कालिन्द पर्वत पर स्थित सप्तऋषि कुण्ड है। जिस कुण्ड में चंपासर हिमनद से पिघला जल एकत्रित होता रहता है। इस कुण्ड का जल गहरा नीला है। यहाँ ब्रह्म कमल भी खिलते हैं। यमुनोत्री यमुना नदी के बाँये किनारे पर लगभग 3235 मी. ऊँचाई पर स्थित है। यहाँ स्थित वर्तमान मन्दिर का निर्माण जयपुर की महारानी गुलेरिया ने किया था। भूकम्प एवं भूस्खलन के कारण यह दो बार क्षतिग्रस्त हो गया था। 1919 ई. में टिहरी नरेश प्रताप शाह ने इसका जीर्णोद्वार किया था। यमुनोत्री मन्दिर में यमुना की मूर्ति काले संगमरमर से निर्मित है। यह मन्दिर ग्रीष्मकाल में ही दर्शनार्थियों के लिए खुला रहता है। शीतकाल में यह अन्य उच्च हिमालयी क्षेत्र में स्थित मन्दिरों की तरह बन्द हो जाता है। यमुना जी की शीतकाल में पूजा खरसाली गाँव में की जाती है। यमुनोत्री में सूर्यकुण्ड नामक तप्त कुण्ड भी है। जिसमें यमुना जी के जल के विपरीत इतना गर्म जल पाया जाता है कि कपड़े में चावल या आलू कुछ क्षण के लिए डालने पर वह पक जाते हैं। यहाँ स्थित दिव्य शिला नामक शिला को भी अति पवित्र माना जाता है। यमुनोत्री की यात्रा न केवल धार्मिक यात्रा है वरन् यह पर्यटन हेतु भी अति सुन्दर यात्रा है।

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मुनस्यारी

मुनस्यारी पिथौरागढ़ जनपद का सीमान्त क्षेत्र है। यह क्षेत्र पर्यटन की दृष्टि से उत्तम हैं। कालामुनि के घने जंगल, मिर्थी फाल, सामने स्थित पंचाचूली की श्वेत हिमाच्छादित श्रृंखला पर्यटनों का मन मोह लेती है। ग्रीष्म काल में यहाँ की जलवायु सुखद एवं चित्ताकर्षक होती है। जगह-जगह खिलने वाले जंगली पुष्प इसके सौन्दर्य में चार चाँद लगाते हैं। यहीं से होकर मिलम ग्लेशियर को मार्ग जाता है। मुनस्यारी को जोहार क्षेत्र भी कहा जाता है। यहाँ के अधिकांश निवासी भोटिया जनजाति के हैं। उनके द्वारा निर्मित कालीन, ऊनी चादरें, ऊनी कपड़े, पशमीने की शालें लोकप्रिय हैं। यहाँ के भोटान्तिक जोहारी या शौका कहलाते हैं। प्राचीन काल में जोहारी भोटान्तिकों द्वारा तिब्बत से व्यापार किया जाता था। मुनस्यारी पर्वत के मध्य भाग में स्थित है। निचली घाटी में गोरी नदी प्रवाहित होती है। जो आगे जाकर भारत-नेपाल सीमा पर जौलजीवी नामक स्थान पर काली नदी से मिलती है। मुनस्यारी में आलू, राजमा, सेब, खुमानी पर्याप्त मात्रा में होता है। यहाँ का आलू, गन्धरायणी व जम्बू विशेष रुप से प्रसिद्ध है। यहाँ का मौसम प्रतिपल परिवर्तनशील रहता है। शीतकाल में यहाँ बर्फ पड़ती है। पर्यटन हेतु यह एक उत्तम स्थान है।

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कैंची धाम

कँची धाम उत्तराखण्ड के पर्यटन मानचित्र में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता है। यह स्थान उत्तराखण्ड के सुरम्य पर्वतों की तलहटी पर बसा एक मनोरम्य धार्मिक स्थल है। यह स्थान महाबली हनुमान जी के मन्दिर के लिए प्रसिद्ध है, इस मन्दिर की स्थापना हनुमान भक्त महाराज नीम करौली जी द्वारा 1964 में की गयी थी। इस मन्दिर से लगा आश्रम महाराज नीम करौली बाबा का प्रमुख आश्रम माना जाता है। यहाँ प्रतिवर्ष 15 जून को विशाल भण्डारा लगता है जिसमें देश-विदेश से लाखों भक्त शामिल होते हैं। कैंची धाम भवाली से 9 किमी. दूरी पर अल्मोड़ा-नैनीताल मार्ग पर स्थित है। इस पर्यटन की प्रसिद्धी इस बात से भी जानी जा सकती है कि इस स्थल से भक्तों के रूप में एप्पल संस्थापक स्टीव जॉब्स तथा फेसबुक के संस्थापक मार्क जुकरबर्ग जैसे लोग भी जुड़े हैं।

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मंसूरी

मंसूरी देहरादून जनपद में 2000 से 2400 मी. की ऊँचाई पर स्थित है। यह पर्यटन के लिए भारत भर में ‘पहाड़ों की रानी’ के नाम से जाना जाता है। यहाँ की सुखद जलवायु एवं प्राकृतिक सौन्दर्य के कारण ही एक अंग्रेज मे हियर्से ने 1811ई0 में एक स्थानीय जमींदार से खरीदा था। जिसने इसे 1812 ई0 में ईस्ट इण्डिया कम्पनी को बेच दिया था। इस शहर का सबसे पुराना बाजार लण्डौर बाजार है। जिसे 1828 ई0 में स्थापित किया गया। मंसूरी में कैम्पटी फाल अपनी सुन्दरता एवं रोचकता के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ लाल बहादुर राष्ट्रीय प्रशासनिक अकादमी भी है। इसकी स्थापना 1958-60 ई0 में की गयी। जहाँ भारत के प्रशासनिक अधिकारियों को प्रशिक्षण दिया जाता है। यहाँ प्रतिवर्ष हजारों पर्यटक आते हैं। यहाँ के दर्शनीय स्थल लालटिब्बा, गनहिल, तथा म्युनिसिपल गार्डन हैं। यहाँ रोपवे भी है जो 1970 ई0 में बनाया गया था।

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पूर्णागिरी

पूर्णागिरी उत्तरांचल में स्थित एक प्रसिद्ध धार्मिक स्थल है यह चम्पावत जनपद में स्थित है। देवी भागवत स्कन्द पुराण इत्यादि धार्मिक ग्रन्थों में इस स्थल का विशिष्ट उल्लेख मिलता है। इस स्थल की गणना भारत में स्थित देवी की 108 सिद्धिपीठों में की जाती है। हरे भरे जंगलों से घिरा यह तीर्थ एक ऊँची चट्टान पर बना है। जहाँ से चारों ओर स्थित वनाच्छादित पर्वतों एवं लहराती हुई शारदा नदी का दृश्य मनमोह लेता है। यहाँ प्रति वर्ष नवरात्रियों में मेला लगता है। इस पवित्र तीर्थ का महत्व यहाँ आने वाले लाखों दर्शनार्थियों से लगाया जा सकता है जो प्रतिवर्ष यहाँ दर्शन के लिए आते हैं। इस तीर्थ में सर्वाधिक दर्शनार्थी मेले के समय ही जाते हैं जो कि लाखों की संख्या में होते हैं। यह स्थल भारत एवं नेपाल दोनों देशों के लोगों का आस्था का केन्द्र है। चम्पावत जिले में इसके अतिरिक्त श्यामलता ताल एवं मायावती आश्रम भी दर्शनीय हैं। मायावती आश्रम विवेकानन्द स्वामी से सम्बन्धित एक दर्शनीय स्थल है।

रानीखेत

यह पर्यटन स्थल अल्मोड़ा जनपद में स्थित है। चीड़ एवं देवदार के वृक्षों से घिरा ह स्थल अपनी नैसर्गिक सौन्दर्य के लिए प्रसिद्ध है। वर्षों से सैनी के लिए प्रसिद्ध रहा है। यह देश के 62 छावनी क्षेत्रों में प्रमुख है। जो आज भी छावनी क्षेत्र के रूप में सैन्य प्रशासन से प्रशासित है। उत्तरांचल में मात्र तीन क्षेत्र रानीखेत, लैन्सडाऊन एवं चकराता ही छावनी क्षेत्र के अन्तर्गत आते हैं। खवनी क्षेत्रों में रानीखेत का नाम विख्यात है। यहाँ कुमाऊँ रेजीमेन्ट का मुख्यालय है। कुमाऊँ रेजीमेन्ट देश की सर्वाधिक प्राचीन रेजीमेन्टों में है। इस रेजीमेन्ट की सबसे पुरानी बटालियन 4- कुमाऊँ है। जिसे पूर्व में एल्लिवपुर ब्रिगेड के नाम से जाना जाता था। इसकी स्थापना दक्षिण भारत में स्थित बराड़ के नवाब संलावत जंग ने 1788 ई. में की थी। वर्तमान में कुमाऊँ रेजीमेन्ट में 18 बटालियनें हैं। इसके अतिरिक्त दो नागा बटालियन, कुमाऊँ स्काउट्स, 111 टी. ए. पैदल सेना बटालियन, 130 पर्यावरण वाहिनी तथा राष्ट्रीय राइफल्स की बटालियन भी सम्मिलित हैं। कुमाऊँ रेजीमेन्ट का सुनहरा सैन्य इतिहास रहा है। इसने न केवल स्वतन्त्रता पूर्व काल में वरन् स्वतन्त्रोत्तर काल में भी सराहनीय सैन्य सेवायें प्रदान की। स्वतन्त्रता से पूर्व प्रथम विश्व युद्ध एवं द्वितीय विश्व युद्ध में अपनी वीरता का परिचय दिया था। स्वतन्त्रता के पश्चात 1947-48, 1962, 1965, 1971 एवं कारगिल युद्ध में भी इस रेजीमेन्ट के सैनिकों ने अपनी वीरता व देशभक्ति से उत्तरांचल का सर ऊँचा उठाया। इसके अतिरिक्त इस रेजीमेन्ट के सैनिक शान्ति सेना के रुप में संयुक्त राष्ट्र संघ की सेना में कार्य करते रहे हैं। मे. सोमनाथ शर्मा जिन्हें सर्वप्रथम देश का सर्वोच्च सैन्य सम्मान परमवीर चक्र वीरता हेतु प्राप्त हुआ इसी रेजीमेन्ट के थे जो कि 4- कुमाऊँ के बहादुर सैनिक थे। में शैतान सिंह 13- कुमाऊँ के सैनिक को भी 1962 के युद्ध में परमवीर चक्र प्राप्त हुआ।

इसके अतिरिक्त इस रेजीमेन्ट के सैनिकों को कई वीरता पुरस्कार प्राप्त हो चुके हैं। कुमाऊँ रेजीमेन्ट का मुख्यालय रानीखेत में 1948 में स्थापित किया गया था। तब से अब तक इस रेजीमेन्ट ने देश को तीन सेनाध्यक्ष भी प्रदान किये जो कि जनरल एस. एम. नागेश (1955-57), जनरल के. एस. थिमैया (1957-61) तथा जनरल टी. एन. रैना (1975-78) है।

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लैन्सडाउन

लैन्सडाउन पौड़ी जिले में लगभग 1828 मी. ऊँचाई पर स्थित है। इस शहर को 1887 से 1922 के बीच विकसित किया गया। इसका नाम भारत के तत्कालीन वायसराय लाई लैन्सडाउन के सम्मान में रखा गया। यह एक प्रमुख पर्यटन क्षेत्र के साथ ही गढ़वाल रेजीमेन्ट का मुख्यालय भी है। गढ़वाल रेजीमेन्ट की स्थापना 1887 में गोरखा रेजीमेन्ट के गढ़वाली सैनिकों से अल्मोड़े में हुआ था। तब इसे तीसरी कुमाऊँ रेजीमेन्ट नाम से जाना गया। वर्तमान में इस रेजीमेन्ट में 19 बटालियनें हैं। गढ़वाल रेजीमेन्ट का एक वीरतापूर्ण इतिहास रहा है। इस रेजीमेन्ट को सर्वाधिक ख्याति 1930 में पेशावर कांड से मिली जब कि गढ़वाल राइफल्स की 2/18 बटालियन जिसका नेतृत्व चन्द्र सिंह गढ़वाली कर रहे थे ने आन्दोलन कर रहे भारतीय पर ब्रिटिश हुक्मरानों के आदेश के बावजूद गोली चलाने से इन्कार कर दिया। यह भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के इतिहास को अविस्मरणीय घटना है। जिसका अन्यत्र उदाहरण कम मिलता है। इसके अतिरिक्त गढ़वाली सैनिकों ने प्रथम एवं द्वितीय विश्व युद्धों में विश्व भर में अपनी वीरता को धाक जमायो। गढ़वाल राइफल्स के दरबान सिंह को प्रथम विश्व युद्ध में वीरता के लिए विक्टोरिया क्रास से सम्मानित किया गया। वे इस सम्मान से सम्मानित होने वाले दूसरे भारतीय सैनिक थे। इसके अतिरिक्त 1947-48, 1962, 1965, 1971 एवं कारगिल युद्ध में भी गढ़वाल रेजीमेन्ट के सैनिकों ने वीरता की जो मिशाल रखी वह अविस्मरणीय है। इस रेजीमेन्ट के जवानों को उनकी वीरता के लिए अनेक वीरता सम्मानों से सम्मानित किया गया है।

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