उत्तराखंड के लोकगीत mcq
उत्तराखंड के लोकगीत mcq
लोकगीत उत्तराखंड
मांगल गीत
मांगल गीत का अर्थ है, मांगलिक कार्यों के दौरान गाये जाने वाले गीत। इन गीतों का उद्देश्य शुभ कार्यों के मंगलमय समापन की कामना करना होता है। इन गीतों को इनकी प्रकृति के अनुसार पुनः निम्नलिखित समूहों में विभाजित किया जा सकता हैं-
- क. देवताओं के मांगल गीत
- ख. जागरण गीत
- ग. आह्वान गीत
Uttarakhand Folk Songs
पंवाड़े
उत्तराखण्ड मात्र देव भूमि ही नहीं, अपितु वीरों की भूमि भी है। यहाँ समय-समय पर अनेक वीरों ने जन्म लिया है। इन वीरों की वीरगाथाओं को ही स्थानीय भाषा में पवांड़े कहा जाता है। कुमाऊँ की तुलना में गढ़वाल में पंवाड़े अधिक लोकप्रिय हैं। माधव सिंह भण्डारी, कफ्फू चौहान, तीलू रौतेली, गढ़सुम्याल, लोदी रिखोला, सिदुवा-बिदुवा, जीतू बगड़वाल, स्यूंराज- भ्यूंराज महर, अजय पाल, भतेहशाह जैसे वीरों की सूची अत्यंत लम्बी है, जिनके पंवाड़े बहुत अधिक प्रसिद्ध है। इन्हे आज भी बड़े उत्साह एवं हर्ष के साथ गाया और सुना जाता है। निम्नलिखित पंवाड़े में एक कुंवर सुरजू के शौर्य तथा राजकुमारी जोतमाला के सौंदर्य का वर्णन है-
एक दिन कुंवर ! त्वीकू राती का विखैमा नागू का सुरजू ! बला सुपीनो वैगए राती होये थोड़ा तिन, स्वीणों जपे भौत पौछिगे सूरजू जैकी ताता लुहागढ़
ऋतु गीत
हमारे देश तथा प्रदेश में तीनों ऋतु यथा, ग्रीष्म, शीत तथा वर्षा पायी जाती हैं। इन ऋतुओं के अनुसार ही विभिन्न प्रकार के पेड़-पौधे, फूल-पत्ते, पशु-पक्षियों का जन्म-चक्र निर्धारित होता है। प्रत्येक ऋतु की अपनी कुछ प्रमुख विशेषताएं होती हैं। इन विशेशताओं का मानव तथा पशु-पक्षियों के जीवन पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है। इन ऋतुओं की विशेषताओं तथा उनसे सम्बंधित संवेदनाओं को व्यक्त करने वाले गीत ही ऋतु गीत कहलाते हैं। इन गीतों को निम्नलिखित वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-
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बासंती गीत
- बसन्त ऋतु की विशेषताओं का वर्णन करने वाले गीत बासन्ती गीत कहलाते हैं। सामान्यतः माघ माह की शुक्ल पंचमी से बसंत ऋतु का आरम्भ होता है। फाल्गुन तथा चैत्र माह बसंत ऋतु के मुख्य माह हैं। आधुनिक कैलेण्डर के अनुसार फरवरी से मार्च तक बसंत की ऋतु होती है।
- इस ऋतुकाल में शीतऋतु की ठण्ड कम होने लगती है, मौसम सुहावना होने लगता है। पेड़ों में नये पत्ते एवं कलियां खिलने लगती है। आम के पेड़ बौर से भर जाते हैं। चारों ओर पीली सरसों फूलने लगती है। इन घटनाओं से जनमानस में एक अद्भुत उमंग, उत्साह एवं प्रसन्नता का संचार होता है। इन भावों को व्यक्त करने वाले गीत ही बासंती गीत कहलाते हैं।
फूलदेई फूलदेई फूल संगराद ! सुफल करो नयो बरस तुमकू भगवान ! रंगीला-चंगीला फूलीगै, डाला बोटला ह्यां वैगै। पौन-पंछी ऐन, फूल हंसी रैन आयो नयो बरस, आज फूल संगराद।
खुदेड़ गीत
- गढ़वाली भाषा में खुद का शाब्दिक अर्थ है, याद या स्मरण। अतः खुदेड़ गीत किसी व्यक्ति को याद करते समय उत्पन्न होने वाले मनोभाव हैं। गढ़वाल में इन गीतों का प्रयोग मुख्यतः उन विवाहित कन्याओं द्वारा अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिये किया जाता है, जिन्हे अपने मायके की खुद अर्थात याद आ रही होती है।
- हम इस तथ्य से भी भली-भांति परिचित हैं कि पर्वतीय क्षेत्रों का जीवन बहुत कठिन होता है। महिलाओं को अपने ससुराल में बहुत अधिक कार्य करने पड़ते हैं। इसके अतिरिक्त उन्हें कई बार अपनी सास तथा अन्य ससुराल वालों के ताने भी सुनने पड़ते हैं। ऐसी स्थिति में वह अपने मायके में अपने बचपन के दिनों को याद करती रहती है। यह महिलाएं बस इस बात की प्रतिक्षा करती हैं कि वह बसंत ऋतु में अपने मायके जाकर अपने बचपन को पुनः जीयेंगी। किंतु जब उन्हें किसी कारण मायके जाने का अवसर नहीं मिल पाता है, तो वह मायके की खुद को खुदेड़ गीतों के माध्यम से अभिव्यक्त करती हैं।
- इसी प्रकार पहाड़ से बड़ी संख्या में पुरूष सेना में भर्ती हो जाते हैं या रोजगार की खोज में दूर शहरों में चले जाते हैं। उनकी पत्नियां खुदेड़ गीतों के माध्यम से अपने विरह की व्याकुलता को व्यक्त करती हैं। इन गीतो को गाने वाली कन्या ‘खुदैती’ या ‘खुदेड़’ कहलाती है।.
झुमैलो गीत
यह ऋतु गीतों का एक प्रमुख गीत है। नवविवाहित कन्याएं पूरे वर्ष भर अपने मायके जाने की प्रतिक्षा करती हैं। जब बसंत ऋतु में वें अपने मायके पहुंचती हैं, तो उनके हृदय में अपने बचपन की स्मृति पुनः जीवित हो जाती हैं। इस प्रसन्नता एवं उमंग के अवसर पर वें झूमने और नाचने लगती हैं। इन तीव्र उद्वेगों को अभिव्यक्त करने वाले गीत ही झुमैलों गीत कहलाते हैं।
चौमासा गीत
चौमासा का अर्थ है-वर्षा ऋतु। वर्षा ऋतु के आगमन पर गाये जाने वाले गीत चौमासा गीत कहलाते हैं।इन गीतों में वर्षा ऋतु के कारण चारों ओर फैली हरियाली तथा इसके कारण मन में उत्पन्न होने वाली प्रसन्नता स्पष्ट झलकती है। यह गीत प्रकृति के प्रति प्रेम तथा अपने प्रिय से विरह की भावना से ओत-प्रोत होते हैं। अतः इन गीतों की प्रकृति भी खुदेड़ गीतों की भांति होती है।
नृत्य गीत
गीतों का नृत्य के साथ सम्बंध ठीक वैसा ही है, जैसा पुष्प का सम्बंध सुगंध के साथ। अतः जिस प्रकार उत्तराखण्ड की धरती पर विभिन्न प्रकार के गीतों की रचना हुई, ठीक उसी प्रकार कई नृत्यों की भी उत्पत्ति हुई है। कुछ गीतों के साथ नृत्य भी उनका आवश्यक घटक है। ऐसे गीतों को नृत्य गीत कहा जाता है। यह नृत्य गीत अधोलिखित प्रकार के हैं-
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क. थड़या नृत्यगीत
- थड़या शब्द की उत्पत्ति थाड़ शब्द से हुई है। स्थानीय भाषा में थाड़ शब्द का अर्थ ‘आंगन’ होता है।
- गांव की स्त्रियाँ तथा मायके आई हुयी विवाहित लड़कियाँ घर के थाड़ (आगन या चौक) में इस नृत्य को बहुत ही उत्साहपूर्वक करती हैं। इस नृत्य के दौरान गाये जाने वाले गीतों को थड़िया गीत कहा जाता है।
- यह नृत्य गढ़वाल क्षेत्र में लास्य शैली के सबसे सुन्दर नृत्य गीतों में से एक है। यह नृत्य बसंत पंचमी से विषुवत संक्रान्ति (बिखोत) तक किया जाता है।
- इनकी एक समान प्रकृति के कारण कुछ लोग थड़िया एवं मण्डाण नृत्य को एक दूसरे के समान मान लेते हैं, किंतु दोनों नृत्यों में अंतर है। थड़िया नृत्य में गांव की कन्याएं भाग लेती हैं, जबकि मण्डाण में यह नृत्य वर्ग विशेष द्वारा किया जाता है।
चौफला नृत्य (चमफुली नृत्य)
- ‘चौ’ का अर्थ होता है ‘चारों ओर’ तथा ‘फुला’ का अर्थ होता है ‘प्रसन्न होना’। अर्थात जब चारों ओर प्रसन्नता एवं उत्साह का वातावरण हो, तब उस समय चौफुला नृत्य किये जाते हैं।
- इस नृत्य के साथ पौराणिक मान्यता भी जुड़ी हुई है। ऐसा माना जाता है कि इस नृत्य को माँ पार्वती ने भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए गढ़वाल की एक पर्वत श्रृंखला पर चौरी (चौपाल) बनाकर अपनी सहेलियों के साथ किया था और इस नृत्य से उस चौरी के चारों ओर फूल खिल गये थे। भगवान शिव माँ पार्वती से प्रसन्न हुए थे और उन्होने माँ पार्वती से विवाह किया था। इसी प्रसंग से चौफुला नृत्य प्रसिद्ध हो गया।
- गढ़वाल क्षेत्र में यह नृत्य स्त्री-पुरूष द्वारा एक साथ या अलग-अलग टोली बनाकर किया जाता है।
- यह नृत्य एक श्रृंगार नृत्य है। उल्लेखनीय है कि इसमें किसी वाद्य यंत्र का प्रयोग नहीं किया जाता है अपितु हाथों की ताली, पैरों की थाप, झांझ की झंकार, कंगन, पाजेब तथा अन्य आभूषणों की ध्वनियां इस नृत्य के दौरान मादकता प्रदान करती हैं।
चांचरी नृत्यगीत
- यह नृत्य गढ़वाल में बसंत ऋतु की चाँदनी रात में किया जाता है।
- इस नृत्य में मुख्य गायक स्त्री-पुरूषों द्वारा बनाए गए एक गोल घेरे के बीच हुड़की बजाते हुए नृत्य करता है। यह नृत्य गीत विभिन्न विषयों से सम्बंधित होते हैं, अर्थात इनकी विषय वस्तु में कोई सीमा निर्धारित नहीं होती है।
- इस नृत्य को कुमाऊँ क्षेत्र में झोड़ा कहते हैं। चांचरी की गति झोड़े की तुलना में धीमी होती है।
झोड़ा
- यह नृत्य कुमाऊँ एवं गढ़वाल में बसंत ऋतु की चाँदनी रात में किया जाता है। बसंत ऋतु का इस नृत्य पर बहुत प्रभाव होता है। जब शीत ऋतु की पीड़ा कम होने लगती है एवं मौसम सुहावना होने लगता है, तो आनंदित मन झोड़ा नृत्य के माध्यम से अपनी प्रसन्नता व्यक्त करता है।
- मन में उठने वाली प्रसन्नता एवं विभिन्न मनोभाव के कारण ही इस नृत्यगीत के विषय किसी बंधन में न बंधकर स्वतंत्र होते हैं।
प्रणय गीत
प्रणय गीत से तात्पर्य प्रेम सम्बंधी गीतों से है। प्रेम मानव समुदाय का एक प्रमुख गुण है। इसलिए यदि किसी मानव समुदाय के गीतों का अवलोकन सूक्ष्मता से किया जाये, तो यह सरलता से स्पष्ट होता है कि प्रायः सभी समुदाय में प्रणय गीत एक सर्वप्रमुख गीत वर्ग है। गढ़वाल भी इस कथन का अपवाद नहीं है। यह गढ़वाल के गीतों का सर्वप्रमुख वर्ग है। विषय वस्तु के आधार पर गढ़वाल के प्रणय गीतों को अधोलिखित समूहों में वर्गीकृत किया जा सकता है-
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बाजूबंद गीत
यह प्रणय गीतों का एक मुख्य वर्ग है। इन गीतों के सम्बंध में श्री शिवानंद नौटियाल लिखते हैं कि “गढ़वाल के प्रेम संवाद वाले गीत बाजूबंद गीत कहलाते हैं। इन गीतों में स्त्री तथा पुरूष का प्रेम संवाद मुख्य होता है। यें गीत वनों के एकांत में घास-लकड़ी काटते हुए अथवा भेड़-बकरियों तथा पशुओं को चराते हुए गाये जाते हैं।
छोपती गीत
- यह नृत्य गीत सम्पूर्ण गढ़वाल में तो नहीं, अपितु जौनपुर-रंवाई क्षेत्र का एक लोकप्रिय नृत्य गीत है।
- इसमें स्त्री तथा पुरूष दो दलों का निर्माण कर प्रणय गीत गाते हैं। इन गीतों में वाचालता, प्रत्युत्पन्नमति तथा वाक्पटुता प्रमुख तत्व होते हैं।
छपेली गीत
छोपती के विपरीत इन नृत्य गीतों में एक पुरूष तथा एक स्त्री ही भागीदार होते हैं। यह दोनों लोग गीतों के माध्यम से अपने प्रणय की भावना को व्यक्त करते हैं। अतः इन गीतों का समस्त भार दो लोगों पर ही होता है। इसलिए दोनों लोगों को गीत एवं नृत्य में बहुत कुशल होना आवश्यक है।
मंगलाचार या कुलाचार गीत
- इन गीतों का सम्बंध भी प्राचीन वर्ण-व्यस्था से है। इन गीतों का गायन भाट या चारण लोगों द्वारा किया जाता है।
- इन गीतों के माध्यम से यजमानों के घर विभिन्न शुभ अवसरों पर जाकर उनके वंशों का यशोगान किना जाता था और बदले में यजमानों से दान-दक्षिणा आदि प्राप्त की जाती थी। इसलिए इन गीतों को कुलाचारी गीत कहा जाता है।
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चूरा गीत
महान हिमालय तथा मध्य हिमालयी क्षेत्रों में बड़ी मात्रा में पशुपालन किया जाता है। कई लोगों की यह आजीविका का साधन भी है। लोग अपने पशुओं को चराने के लिए चारागाहों में या जंगलों में ले जाते हैं और इस दौरान वे कई महत्वपूर्ण अनुभव सीखते हैं। वृद्ध चरवाहे अपने पशुचारण सम्बंधी अनुभवों को गीतों के माध्यम से अपनी नई पीढ़ी को देते हैं। इन गीतों को ही चूरा गीत कहा जाता है।
ठुलखेत गीत
यह धार्मिक गीत हैं। इन गीतों के मुख्य गायक को ‘बखणनियाँ’ कहा जाता है। हिन्दु धर्म में मर्यादा पुरोषोत्तम भगवान राम के जीवन तथा भगवान कृष्ण की लीलाओं का विशेष स्थान है। ठुलखेत गीतों में इन देवताओं के जीवन से सम्बंधित महत्वपूर्ण प्रसंग गाए जाते हैं।
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हुड़कीबोल गीत
यह गीत एक हुड़के के साथ एक गायक द्वारा गाये जाते हैं। गायक हुड़के की थाप पर गीत की एक पंक्ति गाता है और खेत में कार्य करने वाले लोग काम करते हुए उस पंक्ति को दोहराते हैं। इससे काम के साथ-साथ उनका मनोरंजन भी होता जाता है और वें मन लगाकर काम करते रहते हैं। इस प्रकार उनकी कार्य-दक्षता भी बनी रहती है।
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न्यौली
यह कुमाऊँनी गीतों का एक प्रमुख वर्ग है। इन गीतों में जीवन के अकेलेपन के समय के भावों का आधिक्य पाया जाता है। इसलिए इन गीतों में विरह, रूदन, क्रंदन, करूणा, वात्सल्य, वियोग, आसक्ति, प्रिय मिलन की कामना और उसकी अनुभूति करना, दैनिक जीवन में उसकी उपस्थिति को अनुभव करने सम्बंधी भाव सम्मिलित होते हैं।
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